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३८४ | पूज्य प्रवर्तक श्री अम्बालाल जी महाराज — अभिनन्दन ग्रन्थ
सैनिकों के लिए जिस प्रकार के वस्त्रों का निर्धारण हुआ, इससे यह स्पष्ट झलकता है। सैनिक का यह सहज कर्त्तव्य है कि प्रतिक्षण वह, यदि अपेक्षित हो तो लड़ने को, वार करने को, शत्रु द्वारा किये जाने वाले वार से अपने को बचाने को सर्वथा सन्नद्ध रहे । उसके कपड़े इस बात के प्रेरक हैं ।
इसी प्रकार नागरिकजनों में
भी जो लोग चुस्त कपड़े पहनने का शौक रखते हैं, यदि हम पता लगायें तो मालूम पड़ेगा कि वे असहिष्णु प्रकृति के हैं । उनमें तेजी की मात्रा अधिक रहती है ।
ढीले वस्त्रों की उपयोगिता का दूसरा प्रमाण हम यह देखते हैं कि संन्यासियों के अतिरिक्त जो सन्तकोटि के व्यक्ति हुए, वे भी ढीला लम्बा कुर्ता, धोती जैसा परिवेश ही धारण करते रहे हैं ।
संन्यासियों के लिए ढीले, अतएव अनसिले वस्त्रों का जो प्रचलन रहा, वैदिक परम्परा में व्यवहारतः उसमें
परिवर्तन भी आता गया । यद्यपि दण्डी संन्यासी तो आज मी ढीले अनसिले वस्त्र ही धारण करते हैं, पर अन्य संन्यासियों में सिले वस्त्रों के पहनने का भी क्रम चल गया । जैन श्रमणों में वस्त्रों के सन्दर्भ में प्राग्वर्ती परम्परा आज भी अक्षुण्ण रूप में संप्रवृत्त है ।
स्वास्थ्य की दृष्टि से
देह की स्वस्थता व नीरोगिता के लिए यह आवश्यक है कि वायु और घूप का सीधा संस्पर्श देह को मिलता रहे । वस्त्र जितने चुस्त या कसे हुए होंगे, उतना ही धूप व वायु का संस्पर्श, संसर्ग कम होगा। जैन श्रमण के जिस प्रकार के ढीले वस्त्र होते हैं, उसमें यह बाधा नहीं है । वायु, प्रकाश आदि के साक्षात् ग्रहण का वहाँ सुयोग रहता है । यद्यपि श्रमण के लिए देह-पोषण परम ध्येय नहीं है परन्तु नैमित्तिक रूप में देह संयम जीवितव्य का सहायक तो है । दूसरे साधना के जितने कठिन नियमों में एक जैन श्रमण का जीवन बंधा है, उसमें यह कम सम्भव हो पाता है कि रुग्ण हो जाने पर उन्हें अपेक्षित समुचित चिकित्सा का अवसर प्राप्त हो सके, इसलिए अधिक अच्छा यह होता है कि जहाँ तक हो सके, वह रुग्ण ही न हो। क्योंकि रुग्ण श्रमण यथावत् रूप में साधना भी नहीं कर सकता ।
निष्पादत्राणता
भारतीय संन्यास - परम्परा में संन्यासी या साधु के लिए वाहन प्रयोग का सदा से निषेध रहा है। इसलिए वैदिक, बौद्ध एवं जैन तीनों परम्पराओं के परिव्राजक या साधु प्रारम्भ से ही पाद-विहारी रहे हैं । जहाँ अनिवार्य हुआ, जैसे नदी पार करना, वहाँ नौका या जलपोत के प्रयोग की आपवादिक अनुमति रही है, सामान्यतः नहीं । ज्योंज्यों सुविधाएँ बढ़ती गई। संन्यास या साधुत्व के कठोर नियमों के परिपालन में कुछ अनुत्साह आता गया । कतिपय परम्पराओं में वह (पाद - विहार) की बात नहीं रही। धर्म प्रसार या जन-जागरण आदि हेतुओं से वाहन प्रयोग को क्षम्य माने जाने की बात सामने आती है। कहा जाता है कि इससे कितने लोग धर्मानुप्राणित होंगे, कितना लाभ होगा । पर, जरा गहराई से सोचें, वस्तुस्थिति यह नहीं है । जन-जन के धर्मानुप्रणित एवं सत्प्रेरित होने का यथार्थ कार्य तो पादविहार से ही सधता है । पाद-विहारी सन्त अपने पद-यात्रा क्रम के बीच गाँव-गाँव में पहुँचते हैं, जहाँ भिन्न-भिन्न जातियों और धर्मों के ऐसे अनेक अशिक्षित, असंस्कृत लोग उनके संपर्क में आते हैं, जो धर्मोपदेश के सही पात्र हैं, जिन तक तथाकथित धर्मप्रसारक पहुंचते तक नहीं। पाद-विहार का ही यह विशेष लाभ है, यदि पाद - विहारी की प्रचारात्मकता में रुचि न हो तो भी अपने यात्रा - क्रम में उन्हें गाँवों में तो आना ही पड़ता है, जिससे यह सहज रूप में सधता है । क्योंकि सन्त तो स्वयं धर्म के जीवित प्रतीक हैं अतः उनका सान्निध्य ही जन-समुदाय के लिए प्रेरणास्पद है ।
वाहन-प्रयोग द्वारा बड़े-बड़े नगरों में धर्म- प्रसार हेतु जो पहुँचते हैं, वह उनकी अपनी महत्त्वाकांक्षा हो सकती है, वस्तुतः धर्म- जागरण की दृष्टि से कोई बड़ी बात नहीं सघती । बड़े नगरों में प्रायः वहीं पहुँचना होता है, जहाँ उनके परिचित लोग होते हैं। पूर्व परिचय और संपर्क के कारण उनके लिए उन ( धर्म - प्रसारक सन्तों) के उपदेश में कोई नवीनता या विशेषता नहीं रहती । दूसरे, बड़े नगरों के निवासी शिक्षित तथा सुसंस्कृत होते हैं, साहित्य आदि
भी पढ़ सकते हैं, स्वयं पहुँचकर भी लाभ ले सकते हैं, पर ग्रामीणों के लिए यह कुछ भी सम्भव नहीं है ।
दूसरी बात और है, जैसाकि ऊपर कहा गया है, पादविहार संन्यासी या साधु का अपना सैद्धान्तिक आदर्श है, जिसका अखण्डित रूप में सम्यक् परिपालन उसका प्रथम तथा नितान्त आवश्यक कर्त्तव्य है। वाहन प्रयोग द्वारा
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