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३८२ | पूज्य प्रवर्तक श्री अम्बालालजी महाराज-अभिनन्दन ग्रन्थ
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अनेक ऐसी बातें मिलती हैं, जिनसे उनका इतिवृत्त ऐतिहासिक शृखला से जुड़ जाता है। जैन, बौद्ध, वैदिक सभी परम्पराएँ अपने आगमिक और पौराणिक साहित्य में वणित घटनाक्रमों को ऐतिहासिक कहती हैं परन्तु आज की परिभाषा में जिसे इतिहास कहा जाता है. उसमें वे नहीं आतीं। पार्श्वनाथ की गणना आज की तथारूप ऐतिहासिक मान्यता में आती है । बौद्ध पिटकों में कुछ ऐसे संकेत मिलते हैं, जिनसे पाव-परम्परा का हम कुछ अनुमान कर सकते हैं । अर्द्ध-मागधी जैन आगम जो भगवान महावीर के उपदेशों का प्रतिनिधित्व करते माने जाते हैं, में पार्श्व-परम्परा के सम्बन्ध में हमें स्पष्ट और विशद उल्लेख प्राप्त होता है। यद्यपि दिगम्बर सम्प्रदाय अर्द्ध-मागधी आगमों को प्रामाणिक नहीं मानता पर भाषा, वर्णन तथा अन्यान्य आधारों से समीक्षक विद्वान् उनकी प्रामाणिकता स्वीकार करते हैं। आगमों की विवेचन-पद्धति का अपना प्रकार है इसलिए उनमें अपनी कोटि की सज्जा, प्रशस्ति आदि तो है पर, उनमें वैचारिक दृष्टि से जो ऐतिहासिक मौलिकता है वह अमान्य नहीं है। पार्श्व एवं महावीर की परम्परा में वस्त्र
भगवान पार्श्व की परम्परा में जो श्रमण थे, उन्हें पाश्र्वापत्यिक कहा जाता था। वे विविध रंगों के वस्त्र पहनते थे, ऐसा माना जाता है । अर्थात् श्वेत वर्ण के वस्त्र तो उनके थे ही पर अन्य रंगों के वस्त्रों का भी निषेध नहीं था। भगवान महावीर की परम्परा में सवस्त्रता भी थी और निर्वस्त्रता भी । वहाँ साधुओं की दो कोटियाँ मानी गई हैं-जिनकल्पी और स्थविरकल्पी । जिनका अर्थ वीतराग है तथा कल्प का अर्थ आचार-परम्परा है । उनके आचार की तरह जिन श्रमणों का आचार होता था, वे जिनकल्पी कहे जाते थे। जिनकल्पी वस्त्र नहीं पहनते थे । नागरिक बस्तियों से बाहर रहते थे। प्रायः गिरि-कन्दराओं में रहते थे। भिक्षा के सिवाय प्रायः उनका जन-समुदाय में जाना नहीं होता था । स्थविर कल्पी श्वेत वस्त्र धारण करते थे। स्थविर कल्पियों का आचार यद्यपि अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य तथा अपरिग्रह मूलक व्रतों के पालन की दृष्टि से तो उनसे कुछ भी मिन्न नहीं था पर जीवन के बहिरंगी पक्षों को लेकर वस्त्र आदि बाह्य परिवेश के सन्दर्भ में भिन्नता लिये हुये था। कहने का सारांश यह हुआ कि भगवान महावीर के श्रमण-संघ में सवस्त्र और निर्वस्त्र दोनों प्रकार के श्रमण विद्यमान थे।
उत्तराध्ययन सूत्र का एक प्रसंग है, एक बार पार्श्व परम्परा के श्रमण केशी और भगवान महावीर के प्रमुख गणधर गौतम का श्रावस्ती के तिन्दुक उद्यान में मिलन हुआ। इससे तथा कतिपय अन्य उल्लेखों से सूचित होता है कि भगवान महावीर के समय में भी पाश्र्वापत्यिक परम्परा चल रही थी। भगवान महावीर के पिता सिद्धार्थ भी उसी परम्परा के थे। केशी और गौतम का अनेक बातों को लेकर एक विचार विमर्शात्मक संवाद हुआ क्योंकि एक ही विचार-दर्शन की भित्ति पर आधृत दो भिन्न परम्पराओं को देखकर जन-साधारण को कुछ शंका होना सहज था। दोनों के संवाद के पीछे शायद यही आशय रहा हो कि इससे स्पष्टीकरण हो जाय, जिससे यह आशंका उत्पन्न नहीं हो । जिन मुद्दों पर बातचीत हुई उनमें एक मुद्दा था-वस्त्र-सम्बन्धी । केशी ने पूछा-हम दोनों परम्पराओं के साधक जब एक ही आदर्श पर चलते हैं तब अचेलक-निर्वस्त्र, सान्तरोत्तर-सवस्त्र-यह भेद क्यों ?२ गौतम ने बहुत संक्षेप में और बहुत सुन्दर समाधान दिया, जिसके अनुसार श्रामण्य न सवस्त्रता पर टिका है, न निर्वस्त्रता पर । वह तो ज्ञान, दर्शन व चारित्र्य पर टिका है । निर्वेद पूर्ण परिणामों पर आधत है। वस्त्र केवल जीवन-यात्रा के निर्वाह, पहचान आदि के लिये है । व्यावहारिक व औपचारिक है । इस विवाद में उलझने जैसी कोई तात्त्विकता नहीं है । जिनकल्प : स्थविरकल्प : लोक संग्रह
अध्यात्म-साधना, साधक की दृष्टि से सर्वथा पर-निरपेक्ष है। समाज भी उस 'पर' के अन्तर्गत आता है। वहाँ साधक का एक ही लक्ष्य होता है कि वह अपनी आत्मा का उत्थान करे। ऐसी स्थिति का साधक बाह्य औपचारिकताओं का पालन करे, न करे, कम करे इसका कोई महत्त्व नहीं है। प्रायः होता भी यह रहा कि ऐसे साधकों ने निरोपचारिक जीवन ही पसन्द किया । परन्तु भगवान बुद्ध की महाकरुणा के सन्देश की व्यापकता और लोक जनीनता का भी एक प्रभाव था कि अन्यान्य परम्पराएँ भी धार्मिक दृष्टि से लोक-जागरण की ओर विशेषत: गतिशील हुई । गृहस्थ की करुणा जहाँ भौतिक पदार्थ और दैहिक सेवा से सम्बद्ध है, वहाँ श्रमण या संन्यासी की करुणा धर्मामृत के प्रवाह में है, जिससे जन-जन को शान्ति और सुख का सही मार्ग प्राप्त हो सके। महाकरुणा से लोक-संग्रह सधता है।
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