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________________ 000 *. 000000000000 000000000000 ३८० | पूज्य प्रवर्तक श्री अम्बालालजी महाराज — अभिनन्दन ग्रन्थ (५) नमो थेराणं (६) नमो उवज्झायाणं (७) नमो लोए सव्वसाहूणं (८) नमो नाणस्स (६) नमो दंसणस्स (१०) नमो विनय संपन्नाणं (११) नमो चरित्तस्स (१२) नमो बम्भवयधारीणं (१३) नमो किरियाणं (१४) नमो तवस्सीणं (१५) नमो गोयमस्स (१६) नमो जिणाणं (१७) नमो चरणस्स (१८) नमो नाणस्स (१९) नमो सुयमाणस्स (२०) नमो तित्थयरस्स १५ २५ २७ ५ किया गया है। १७ १० ५ ह २५ १५ १७ १० १२ ५ १० ५ यों तो अनशन तप से सम्बन्धित कई व्रत और भी हैं किन्तु मुख्य मुख्य व्रतों का संकलन इस निबन्ध में प्रत्येक तप में माला फेरना चाहिए। व्रत के पूर्ण होने पर धर्म लाभ ( दानादि ) शक्ति व सामर्थ्यानुसार करना चाहिए। तप से आत्मा निर्मल होती है क्योंकि आत्मा के शत्रु क्रोधादि कषाय को तप समाप्त कर देते हैं । कर्मों की निर्जरा इससे होती है। तप के विषय में विस्तृत जानकारी एवं शास्त्रीय परिभाषाएं समझने के लिए- 'जैन धर्म में तप: स्वरूप और विश्लेषण' (श्री मरुधर केसरी) पुस्तक अवश्य पढ़ना चाहिए। तप व्रताराधन अतिचारों से मुक्त रहना चाहिए। संसार वर्धन के लिये व्रताराधना की आवश्यकता नहीं है क्योंकि वह तो अपने आप हो ही रहा है। संसार के भोगोपभोगों से आत्मा क्षोभ व संक्लेश परिणामों से संयुक्त होता है अत: आत्म जागृति ही इसका परम लक्ष्य होना चाहिए। चित्त की आकुलता से अस्थिर मावों के कारण तप व्रत निर्मल नहीं हो पाता है अतः चित्त की स्थिरता तथा व्रतों को भार न मानकर ही व्रत करने चाहिए। तपों का मुख्य प्रयोजन यह होना चाहिए कि आत्मा अपने स्वभाव को जानने का प्रयास करे । उसे धीरे-धीरे यह ज्ञान हो कि जिस शरीर के आश्रित मैं हूँ अथवा संसार के प्राणी मेरे आश्रित हैं वह एक स्वप्न से अधिक नहीं है । शुभ कर्मों का फल भी शुभ होगा और अशुभकर्मों का फल अशुभ होगा यानि जैसी करनी वैसी भरनी । पूर्व जन्म के शुभकर्मोदय से हमें आर्य क्षेत्र, मनुष्य शरीर, उत्तमकुल और निर्ग्रन्थ धर्म की प्राप्ति हुई है, तो वीतराग वाणी पर श्रद्धा रखकर इन्द्रिय और मन को आत्मा के वशवर्ती बनाना चाहिए। तप के बारह भेद अनशन से प्रारम्भ होते हैं, अनशन बाह्य तप का भेद होते हुए भी यदि इसे बाल-तप संज्ञा से मुक्त रखा जाय तो इसे स्वीकार करने वाली आत्मा हल्की होती जाती है, प्रायश्चित्त आदि तप को सहज बनाने के लिए अनशन तप परमावश्यक है क्योंकि मन और इन्द्रियाँ जब भूख तृषा आदि पर विजय प्राप्त कर लेती हैं तो अन्य परिषहों को जय करना सरल हो जाता है, इसीलिए जैन धर्म में अनशन को नींव का पत्थर कहकर इसे महत्त्वपूर्ण स्थान प्रदान किया गया है । MK ✩✩ www.jainelibrary.org
SR No.012038
Book TitleAmbalalji Maharaj Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaubhagyamuni
PublisherAmbalalji Maharaj Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1976
Total Pages678
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size26 MB
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