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३७२ | पूज्य प्रवर्तक श्री अम्बालाल जी महाराज-अभिनन्दन ग्रन्थ
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पूष्माण
न होने पर भी तथा केवल उपवास के दिन के दोनों समय आहार का त्याग करने पर भी उपवास मान लिया जाता है। वस्तुतः चतुर्थ भक्त ही उपवास की संज्ञा है, इसी प्रकार षष्ठ भक्त से तात्पर्य बेला यानि दो उपवास तथा अष्ठम भक्त यानि तेला से है । कहा है-चतुर्थमेकेनोपवासेन षष्ठं द्वाभ्यां अष्टमं त्रिभिः ।
यावत्कथिक-जो अनशन अल्प समय के लिये नहीं किया जाता है उसे यावत्कथिक अनशन कहते हैं-इसके तीन भेद हैं-(१) पादपोपगमन, (२) भक्त प्रत्याख्यान, (३) इंगित मरण ।
पावपोपगमन-पादप का अर्थ वृक्ष है, जिस प्रकार कटा हुआ वृक्ष अथवा वृक्ष की कटी हुई डाली हिलती नहीं, उसी प्रकार संथारा करके जिस स्थान पर जिस रूप में एक बाद लेट जाय फिर उसी जगह उसी रूप में लेटे रहने पर मृत्यु को प्राप्त हो जाना पादपोपगमन मरण है। इसमें हाथ-पैर हिलाने का आगार भी नहीं होता है। इसमें चारों आहार का त्याग करके अपने शरीर के किसी भी अंग को किंचित मात्र भी न हिलाते हुए निश्चय रूप से संथारा करना पादपोपगमन कहलाता है । पादपोपगमन के दो भेद हैं-(१) व्याघातिम (२) निर्व्याघातिम ।
सिंह, व्याघ्र, अग्नि आदि का उपद्रव होने पर जो संथारा किया जाता है वह व्याघातिम पादपोपगमन संथारा कहलाता है। तीर्थंकर महावीर के दर्शनार्थ जाते हुए सुदर्शन ने अर्जुनमाली के शरीर में रहे यक्ष से आते उपसर्ग को जान यही अनशन स्वीकार किया था।
जो किसी भी प्रकार के उपद्रव के बिना स्वेच्छा से संथारा किया जाता है वह निर्व्याघातिम पादपोपगमन संथारा कहलाता है।
भक्त प्रत्याख्यान-यावज्जीवन तीन या चारों आहारों का त्याग कर जो संथारा किया जाता है उसे भक्तप्रत्याख्यान अनशन कहते हैं इसी को भक्त परिज्ञा भी कहते हैं।
इंगित मरण-यावज्जीवन पर्यन्त चारों प्रकार के आहार का त्याग कर निश्चित स्थान में हिलने-डुलने का आगार रखकर जो संथारा किया जाता है, उसे इंगित मरण अनशन कहते हैं, इसे इङ्गिनीमरण भी कहते हैं । इंगित मरण संथारा करने वाला अपने स्थान को छोड़कर कहीं नहीं जाता है एक ही स्थान पर रहते हुए हाथ-पैर आदि हिलाने का उसे आगार रहता है वह दूसरों से सेवा भी नहीं करवाता है।
उपरोक्त तीनों प्रकार के संथारा (अनशन), निहारिम और अनिहारिम के भेद से दो तरह के होते हैं, निहारी संथारा नगर आदि के अन्दर और अनिहारी ग्राम-नगर आदि से बाहर किया जाता है।
अनशन तप के दूसरी तरह से और भी भेद किये जाते हैं।
इत्वरी अनशन तप के छह भेद हैं-श्रेणी तप, प्रतर तप, घन तप, वर्ग तप, वर्ग वर्ग तप और प्रकीर्णक तप । श्रेणी तप आदि तपश्चर्याएँ भिन्न-भिन्न प्रकार से उपवासादि करने से होती हैं।
यावत्कथिक अनशन के काय चेष्टा की अपेक्षा से दो भेद हैं। क्रिया सहित (सविचार) और क्रिया रहित (अविचार), अथवा सपरिकर्म (संथारे में सेवा कराना) और अपरिकर्म (संथारे में सेवा नहीं करवाना)।
इत्वरिक अनशन के श्रेणी तप आदि का विस्तार से निम्नोक्त वर्णन किया जा रहा है
१. नमुक्कार सहि (नवकारसी) सूर्योदय से दो घड़ी के बाद नवकार मन्त्र न कहे तब तक चारों आहारों का त्याग प्रथम और द्वितीय इन दो आगारों से किया जाता है। (आगारों की क्र० सं०, नाम और अर्थ इसी निबन्ध में आगे दिये जा रहे हैं)।
२. पौरिसियं (पौरिसी) सूर्योदय से लेकर प्रहर तक (दिन के चौथे भाग तक चारों आहारों का त्याग करना पौरिसियं प्रत्याख्यान कहलाता है इसमें आगार संख्या एक से छह तक की होती है।
३. साड्ड पौरिसियं-(डेढ़ पौरिसी) सूर्योदय से लेकर एक डेढ़ प्रहर तक चारों आहारों का त्याग करना डेढ़ पौरिसी प्रत्याख्यान कहलाता है । पौरिसियं वाले सभी आगार इसमें होते हैं।
४. पुरिमदं (दो पौरिसी)-सूर्योदय से लेकर दोपहर तक चारों आहारों के त्याग करने के पुरिमड्डु प्रत्याख्यान कहते हैं । इसमें पूर्वोक्त ६ के अतिरिक्त महत्तरागोरणं आगार विशेष होता है।
५. तीन पौरिसी (अवड्डु) सूर्योदय से लेकर तीन पहर तक चारों आहारों का त्याग अवड्ड प्रत्याख्यान कहलाता है इसमें पूर्वोक्त ७ आगार होते हैं ।
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