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श्रमणाचार : एक अनुशीलन | ३६६
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बड़े-बड़े आपरेशन कराके चीर-फाड़ करवाने से नहीं हिचकता वैसे ही अनन्त सौख्य के लिए श्रमण साधना के समय आने वाले कष्टों को साधक हँसते-हँसते सह जाता है। श्रमण साधकों के जीवन में अनेक अनुकूल एवं प्रतिकूल परीषह आते हैं । उसके पथ में फूल भी हैं और शूल भी किन्तु वह फूलों में लुभाता नहीं और शूलों से पीछे हटता नहीं । क्षुधा, तृषा, शीत, तप, आदि बावीस परीषह उत्पन्न होते हैं। किन्तु ज्यों-ज्यों साधक की साधना आगे बढ़ती है त्यों-त्यों ये परीषह सहज रूप से कम हो जाते हैं और जो साधक श्रमणत्व के सर्वोच्च अरिहन्त पद पर पहुंच जाता है उसके लिए एकादश परीषह ही शेष रहते हैं एवं जो सिद्ध पद में पहुँचता है उसके समूल परीषहों का नाश हो जाता है।
श्रमणत्व ग्रहण करते समय सुग्रीव नगर के राजकुमार मृगापुत्र को उनकी माता ने श्रमणत्व के अनेक दुःख बताये किन्तु मृगापुत्र ने अविचल भाव से उत्तर दिया कि श्रमण साधना की अपेक्षा संसार में अनन्त दुःख भरे पड़े हैं, वे दुःख असह्य हैं। वे दुःख निम्न हैं---जन्म, जरा, मृत्यु, रोग इन दुःखों से जीव क्लेश पा रहे हैं । अत: इस जन्ममरण के चक्र में एक क्षण भी सुख नहीं मान सकता हूँ। मैंने अनन्त बार शारीरिक मानसिक आदि भयानक वेदनाएँ नरकादि दुर्गतियों में सहन की हैं उनके सामने श्रमणत्व की साधना के दुःख तो अणु जितने भी नहीं हैं। जैसे एक मृग अरण्य में एकाकी निवास करता है किन्तु अपने को दुःखी नहीं मानता । इसी प्रकार मैं भी एकाकी रह कर धर्म की साधना करूंगा।" एक बार श्रमण भगवान महावीर स्वामी ने अपने सभी शिष्यों को आमन्त्रित करके एक महान् सिद्धान्त बताया। उन्होंने अपने शिष्यों से प्रश्न किया कि-'आर्यों प्राणियों को किसका भय है ? जब शिष्यों ने भगवान से ही इसका प्रति प्रश्न किया तो भगवान ने कहा-अहो आयुष्यमान श्रमणो ! सभी प्राणी दुःखों से भयभीत होते हैं । शिष्यों ने पूछा--भगवन्, वह दुःख किसने उत्पन्न किया ? भगवान ने कहा-वह दुःख जीवों ने अपने प्रमाद से, अर्थात् अज्ञान व असंयम से उत्पन्न किया है और उस दुःख को जीव अपने अप्रमाद अर्थात् सम्यक् ज्ञान एवं सम्यक् क्रिया संयम से दूर कर सकते हैं । श्रमण-साधना में दुःखानुभूति है अथवा सुखानुभूति ?
यह श्रमण की उसकी मानसिक स्थिति पर निर्भर है। जो श्रमण श्रमणत्त्व में सुख मानता है उसके लिए उसमें स्वर्ग से भी अधिक सौख्य की अनुभूति होती है और जो श्रमणत्व में पराजित होकर बाह्य बन्धन से उसमें रहता है उसके लिए श्रमणत्व सातवीं नरक से भी अधिक दुःखप्रद है। क्योंकि परिस्थिति की अनुकूलता प्रतिकूलता कभी-कभी कर्ता के अधीन होती है। जो परिस्थिति को अपने पुरुषार्थ से स्वेच्छानुसार स्वस्थिति बनाने में समर्थ होता है उसके लिए कहीं दुःख नाम का तत्त्व है ही नहीं। क्योंकि सुख-दुःख दोनों का कर्ता आत्मा ही है । आत्मा ही वैतरणी नदी एवं नन्दन वन के दुःख-सुख का कर्ता भोक्ता हैं ।
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१ (क) “समयाए समणो होइ,"
(ख) सव्वभूयप्प-भूयस्स सम्मं भूयाइ पासओ-'दशवै० अ० ४, गा० ६
(ग) आत्मवत् सर्वभूतेषु यः पश्यति स पण्डितः । २ लाभालाभे सुहे दुक्खे, जीविए मरणे तहा ।
समो निन्दा पसंसासु तहा माणावमाणओ ॥-उत्त० अ० १६, गा०६० अणिस्सिओ इहं लोए परलोए आणीस्सओ वासी चन्दण कप्पो य, असणे अणसणे तहा।-उत्त० अ० १६, गा० ६२
'अतत्ताए परिव्वए'-सूत्र कृतांग अ०३, उ० ३, गा० ११ ४ अतत्ताए संवडस्स'-सूत्र०, अ०२
"जा उ अस्साविणी नावा, न सा पारस्स गामिणी । जा निरस्साविणी नावा सा उ पारस्स गामिणी।"-- सरीर माहु नावित्ति जीवो वुच्चइ नाविओ। संसारो अण्णवो वुत्तो जं तरन्ति महेसिणो।"-उत्त० २३
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