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३६६ | पूज्य प्रवर्तक श्री अम्बालाल जी महाराज-अभिनन्दन प्रन्थ
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श्रेणियाँ थीं, उनके नाम हैं-जिनकल्पी और स्थविरकल्पी। इनका प्रमुख तात्पर्य है आत्मसेवी और समाजसेवी। जिनकल्पी श्रमण केवल अपना ही आत्मोद्धार करते हैं, बहुत लम्बीतपस्या करके वनों में निवास करते हैं तथा यदा-कदा भिक्षाग्रहण करने बस्ती में आते हैं और भिक्षा होते ही फिर एकान्तवास करते हैं । वे चाहे वस्त्र पात्र नहीं रखें तब भी चल सकता है। किन्तु स्थविरकल्पी स्व-पर उभय-आत्मोद्धारक होते है। अतः वे ग्राम, नगर के मध्य या एक किनारे ठहरते हैं, समाज के सहस्रों स्त्री-पुरुषों के मध्य धर्मोपदेश करते हैं। अत: उनका सीमित-मर्यादित वस्त्र, पात्र रखना शास्त्र सम्मत है। भगवान महावीर जब सर्वज्ञ सर्वदर्शी एवं पूर्णज्ञानी होकर धर्मोपदेष्टा के रूप में समाज के सम्मुख आये और एक व्यवस्थित संघ की संरचना हुई तो श्रमणावार के अनेक नियम-उपनियमों का प्रशिक्षण होने लगा । अतः भगवान महावीर एकाकी अवस्था में पाणिपात्र भोजी रहे किन्तु उनके शिष्य गणधर गौतम आदि चौदह सहस्र शिष्यों के लिये काष्ठ के तीन पात्र एवं पहनने के लिये तीन वस्त्रों का विधान किया। भोजन भी एक श्रमण किसी एक घर में न करके थोड़ी-थोड़ी भिक्षा बहुत घरों से लाकर मधुकरी एवं सामुदायिक गोचरी करके आचार्य के समीप आकर । एकान्त में आहार करने लगे । श्रमण संघ में कोई श्रमण वृद्ध हो, बीमार हो नवदीक्षित हो, बाल हो तो उनकी वैयावृत्य करने के लिये पात्र में भोजन लाकर उन्हें देना होता है, अतः श्रमणसंघीय व्यवस्था में तीन पात्रों का विधान है। एक पात्र जलपान के लिये, द्वितीय आहारादि ग्रहणार्थ और तृतीय देह शुद्धि के लिये । दिगम्बर श्रमण भी देह शुद्धि के लिये एक पात्र कमण्डल रखते ही हैं।
ठाणांग सूत्र में तीन प्रकार के पात्रों का कल्प-विधान है वे हैं-१. तुम्बे का पात्र, २. काष्ठ का पात्र एवं ३. मिट्टी का पात्र । इसी प्रकार तीन कारणों से श्रमण वस्त्र धारण कर सकते हैं, वे हैं-लज्जा निवारण करने के लिये, जनता की घृणा (दुगु'छा) दूर करने के लिये और शीत, तापादि परिषह असह्य होने पर । जैसे मुनि स्वर्ण, रजत, लोह, ताम्र, पीतल आदि धातु के पात्र नहीं रखते हैं वैसे ही वस्त्र भी बहुमूल्य एवं रग-बिरंगे नहीं रख सकते, क्योंकि उन्हें अपनी देह पर वस्त्रालंकार नहीं सजाना है। ठाणांग सूत्र में श्रमण के लिये तीन प्रकार के वस्त्र का कल्प बताया है, वे हैं १. ऊनके, २. कपास के, ३. सण के। वस्त्र की मर्यादा में श्रमण के लिये ७२ हाथ एवं श्रमणी को ६६ हाथ से अधिक वस्त्र नहीं रखने का विधान है। ठाणांग सूत्र में श्रमणो के लिये चार चद्दरें रखने का नियम बताया गया है। उनमें एक चादर दो हाथ की दो चादर तीन-तीन हाथ की एवं चौथी चादर चार हाथ की लम्बीचौड़ी होती है। प्रथम चद्दर स्थानक में रहते समय, दो चादरें गोचरी एवं बाहर भूमि में तथा चौथी चादर समवशरण अर्थात् स्त्री-पुरुषों की धर्म सभा में धर्मोपदेश करते हुए काम में आती है।
__ दशवकालिक सूत्र तथा अन्यत्र भी श्रमण के कुछ उपकरणों का वर्णन मिलता है तथा जो श्रमणोपासक गृहस्थ होते हैं वे मुनि को चौदह प्रकार का निर्दोष दान देते हैं वह इस प्रकार है-१. असन, २. पान, ३. खादिम, ४. खादिम, ५. वस्त्र, ६. प्रतिग्रह (काष्ट पात्रादि), ७. कंबल, ८. पादपोंछन, ६. पीठ, ६. बैठने का बाजोट, १०. फलकसोने का पाट । ११. शैय्या-मकान, १२. संथारा-तृण घास आदि सोने के लिये १३. रजोहरण-ऊनका गुच्छक जीवरक्षाहित, १४. औषध भेषज आदि । आचारांग सूत्र १-६-३ टीका तथा वृहद्कल्पभाष्य गाथा ३६६२ में बताया है कि तीर्थकर को छोड़कर मुखवस्त्रिका और रजोहरण, चोलपटक तो प्रत्येक साधु-साध्वी को रखना अत्यावश्यक है क्योंकि ये श्रमण की पहचान के चिन्ह विशेष हैं तथा जीवरक्षा संयम के लिये प्रमुख उपकरण है। अनेक सूत्रों की साक्षी में मुनियों के कुछ प्रमुख उपकरण निम्नलिखित हैं
१. मुखवस्त्रिका-बीस अंगुल लम्बा, सोलह अंगुल चौड़ा, आठ पट का वस्त्र विशेष जो सूत्र कानों में लेकर मुख पर बाँधते हैं । २. रजोहरण-ऊनका गुच्छक वस्त्रावृत्त दण्ड में लगा कर चींटी आदि नन्हे जीवों की रक्षा का साधन । ३. पात्र-आहार पानी लाने तथा देहशुद्धि के लिये तीन काष्ट पात्र । ४. चोलपटक-कमर से नीचे अर्धाग ढकने का वस्त्र । ५. वस्त्र-७२ हाथ मर्यादित श्वेत वस्त्र । ६. कम्बल-शीत रक्षार्थ । ७. आसन-बैठने के लिये । ८. पाद-पोंछन-वस्त्र खण्ड, ६. शयया-ठहरने का मकान, १०. संथारा-बिछाने का पराल, घास आदि, ११. पीठ-बैठने की चोकी, १२. फलक-सोने का पाट, १३. पात्रबंध-पात्र बाँधने का वस्त्र, १४. पात्र स्थापनवस्त्र खण्ड, १५. पांच केसरिका-प्रमार्जनी, १६. पटल-पाँच ढकने का वस्त्र, १७. रजस्त्राण-वस्त्र पात्र लपेटने का,
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