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३६२ | पूज्य प्रवर्तक श्री अम्बालालजी महाराज-अभिनन्दन ग्रन्थ
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पड़े थे और भगवान महावीर भी विराट् साम्राज्य एवं विलखते प्रिय परिवार के ममत्व बन्धन को तोड़ कर निकल पड़े थे श्रमण साधना के लिए। उनका एकमात्र उद्देश्य था आत्मा की दुःख से मुक्ति । अतएव श्रमण का उद्देश्य है आत्मा । आत्मा के लिए ही श्रमणत्व की साधना में प्रवेश होता है। सूत्रकृतांग में बताया है 'एकमात्र आत्मा के लिये प्रवज्या है । 'आत्मा के लिए संवृत होते हैं, संसार दुःख से व्याप्त है, आत्मा जब तक संसार के किनारे नहीं पहुँचती तब तक दुःख से मुक्त नहीं होती।' उत्तराध्ययन सूत्र में श्रमणत्व को एक नौका के समान बताया है। 'जो नौका सछिद्र होती है वह समुद्र के तट पर नहीं पहुंच पाती। और जो नौका निश्छिद्र होती है वह सागर पार हो जाती है।' तात्पर्य यह है कि जीवन नौका-रूप है, उसमें पाप-रूप छिद्र है जिनसे कर्मरूप पानी आता है किन्तु जिसने संयम के द्वारा वे छिद्र ढक दिये हैं तो वह आत्मा संसार के पार मोक्ष के किनारे पहुंच जाती है। इससे आगे चलकर शास्त्रकार ने शरीर को नौका की उपमा दी है। जैसे-'शरीर नौका है, आत्मा नाविक है संसार एक महासागर है, जिसे महर्षिगण अपने . श्रमणत्व की साधना से पार करके मुक्ति पा लेते हैं।"५ श्रमण का अन्तराचार
एक श्रमण की पहचान क्या गृहस्थ का वेश छोड़कर श्रमण का वेश पहन लेना है । मुख पर पट्टी, रजोहरण, एवं काष्ट पात्र रखना, मिक्षाचर्या से उदरपूर्ति एवं केशों का लुंचन करना ये सभी श्रमण के बाह्याचार हैं । एकमात्र बाह्यलक्षण से ही कोई श्रमण नहीं कहला सकता, इसीलिए भगवान महावीर स्वामी ने कहा "सिर का मुंडन करने से कोई श्रमण नहीं हो सकता, ओंकार जप से ब्राह्मण, अरण्यवास से मुनि एवं वत्कल चीर पहनने से कोई तापस नहीं हो सकता । अपितु समता से श्रमण, ब्रह्मचर्य से ब्राह्मण, मौन से मुनि एवं तप से ही तापस कहलाता है। इसीलिए किसी अनुभवी ने कहा है-"बाना बदले सौ-सौ बार बदले बान तो बेड़ा पार" तात्पर्य यह है कि बान अर्थात् आदत, अभ्यास एवं संस्कारों में परिवर्तन होना चाहिये । ठाणांग सूत्र में श्रमण के लिए दस प्रकार का मुंडन बतलाया है। वह है श्रोत्र न्द्रिय, चक्षु, घ्राण, रसना एवं स्पर्शेन्द्रिय के विषयों पर रागद्वेष का निग्रह करना एवं क्रोध, मान, माया तथा लोभ पर विजय करना, इन नौ प्रकार के आन्तरिक कुसंस्कारों पर पहले विजय करने पर दसवां सिर के बालों का मुंडन करना सार्थक होता है। श्रमण धर्म की दस विशेषताएँ
श्रमण के लक्षणों को श्रमण धर्म कहा जाता है। श्रमण के प्रमुख दस धर्म इस प्रकार हैं-१, क्षमाशत्रुमित्र पर समभाव, २. मुक्ति-निर्लोम वृत्ति, ३. आर्जव-सरलता, मन, वचन, काय योग की एकरूपता, ४. मार्दव
-मृदुलता निरभिमानता, ५. लाघव-परिग्रह एवं ममत्व मोहरहित, ६. सत्य, ७. संयम, ८. तप-द्वादशविध बाह्यभ्यान्तर तप, ६. त्याग, १०. ब्रह्मचर्य । श्रमण, अनगार के सत्ताईस मूल गुण
श्रमण साधना के सहस्रों गुण होते हैं किन्तु उनमें कुछ प्रमुख गुणों का वर्णन करने से उनमें सभी गुणों का समावेश हो जाता है। श्रमणाचार के नियमों को लेकर जैन वाङ्मय में अपार सामग्री यत्र-तत्र-सर्वत्र बिखरी पड़ी है, यदि उन्हे सम्यक् प्रकार से व्यवस्थित किया जाय तो 'श्रमणाचार' के एक ही विषय पर बहुत बड़ी पुस्तक तैयार हो सकती है । किन्तु इस छोटे से निबन्ध में भी यथाशक्ति 'गागर में सागर' भरने की उक्ति चरितार्थ हो सकती है । समवायांग सूत्र में अनगार के २७ गुण हैं वे इस प्रकार हैं
. "प्राणातिपात विरमण" ऐसे ही सर्वथा प्रकार से मृषावाद का त्याग, अदत्तादान त्याग, मैथुन त्याग, परिग्रह त्याग, श्रोत्र न्द्रियनिग्रह आदि ५वीं स्पर्शनेन्द्रिय निग्रह, क्रोधविवेक, मानविवेक, माया-विवेक, लोभ विवेक, मावसत्य, करणसत्य, योगसत्य, क्षमा, वैराग्य, मन समाधारणता, वचन समाधारणता, काय समाधारणपा, ज्ञान-संपन्नता, दर्शनसंपन्नता, चरित्र-संपन्नता, वेदना सहन एवं मृत्यु सहिष्णुता ।
इन २७ गुणों को श्रमण के मूलगुण कहते हैं । प्रायः जैन समाज की सभी सम्प्रदायों एवं शाखाओं को श्रमण के ये २७ मूलगुण मान्य हैं उनमें मूर्तिपूजक, स्थानकवासी, तेरह पन्थ, सभी सम्प्रदायें सम्मत हैं, किन्तु दिगम्बर जैन शाखा
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