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जैन योग: उद्गम, विकास, विश्लेषण, तुलना | ३५७ नहीं हुआ है, केवल उपशम हुआ है। कार्मिक आवरणों के क्षय से जो समाधि अवस्था प्राप्त होती है, वह निर्बीज है; क्योंकि वहाँ कर्म - बीज सम्पूर्णतः दग्ध हो जाता है। कर्मों के उपशम से प्राप्त उन्नत दशा फिर अवनत दशा में परिवर्तित हो सकती है, पर कर्म-क्षय से प्राप्त उन्नत दशा में ऐसा नहीं होता ।
पातञ्जल और जैन योग के इस पहलू पर गहराई से विचार करने की आवश्यकता है ।
कायोत्सर्ग
कायोत्सर्ग जैन परम्परा का एक पारिभाषिक शब्द है । इसका ध्यान के साथ विशेष सम्बन्ध है, कायोत्सर्ग
का शाब्दिक अर्थ है- शरीर का त्याग - विसर्जन पर जीते जी शरीर का त्याग कैसे संभव है ? यहाँ शरीर के त्याग का अर्थ है शरीर की चंचलता का विसर्जन - शरीर का शिथिलीकरण, शारीरिक ममत्व का विसर्जन- शरीर मेरा है, इस भावना का विसर्जन । ममत्व और प्रवृत्ति मन और शरीर में तनाव पैदा करते हैं। तनाव की स्थिति में ध्यान कैसे हो ? अतः मन को शान्त व स्थिर करने के लिए शरीर को शिथिल करना बहुत आवश्यक है। शरीर उतना शिथिल होना चाहिए, जितना किया जा सके। शिथिलीकरण के समय मन पूरा खाली रहे, कोई चिन्तन न हो, जप भी न हो, यह न हो सके तो ओम् आदि का ऐसा स्वर-प्रवाह हो कि बीच में कोई अन्य विकल्प आ ही न सके। उत्तराध्ययन सूत्र, आवश्यक नियुक्ति, दशवेकालिक चूर्ण आदि में विकीर्ण रूप में एतत्सम्बन्धी सामग्री प्राप्य है। अमितगति-श्रावका चार और मूलाचार में कायोत्सर्ग के प्रकार, काल-मान आदि पर विस्तृत प्रकाश डाला गया है। कायोत्सर्ग के काल मान में उच्छवासों की गणना २४ एक विशेष प्रकार वहाँ वर्णित है, जो मननीय है ।
कायोत्सर्ग के प्रसंग में जैन आगमों में विशेष प्रतिमाओं का उल्लेख है । प्रतिमा अभ्यास की एक विशेष दशा है । भद्रा प्रतिमा, महा भद्रा प्रतिमा, सर्वतोभद्रा प्रतिमा तथा महाप्रतिमा में कायोत्सर्ग की विशेष दशाओं में स्थित होकर भगवान महावीर ने ध्यान किया था, जिनका उन उन आगमिक स्थलों में उल्लेख है, जो महावीर की साधना से सम्बद्ध हैं । स्थानांग सूत्र में सुभद्रा प्रतिमा का भी उल्लेख है । इनके अतिरिक्त समाधि- प्रतिमा, उपधानप्रतिमा विवेक-प्रतिमा, व्युत्समं प्रतिमा क्षुल्लिकामोद-प्रतिमा, यवमध्या प्रतिमा, वचमध्या प्रतिमा आदि का भी आगमसाहित्य में उल्लेख मिलता है । पर इनके स्वरूप के सम्बन्ध में कुछ विशेष प्राप्त नहीं है । प्रतीत होता है, यह परम्परा लुप्त हो गई। यह एक गवेषणा योग्य विषय है।
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आलम्बन, अनुप्रेक्षा, भावना
ध्यान को परिपुष्ट करने के लिए जैन आगमों में उनके आलम्बन, अनुप्रेक्षा आदि पर भी विचार किया गया है। आचार्य हेमचन्द्र ने अपने योगशास्त्र में इनकी विशेष चर्चा की है। उदाहरणार्थ उन्होंने शान्ति, मुक्ति, मार्दव तथा आर्जव को ध्यान का आलम्बन कहा है। अनन्तवृत्तिता अनुप्रेक्षा, विपरिणाम-अनुप्रेक्षा, अशुभ-अनुप्रेक्षा तथा उपाय-अनुप्रेक्षा में शुक्ल ध्यान की चार अनुप्रेक्षाएं हैं।
ध्यान के लिए अपेक्षित निर्द्वन्द्वता के लिए जैन आगमों में द्वादश भावनाओं का वर्णन है। आचार्य हेमचन्द्र, शुभचन्द्र आदि ने भी उनका विवेचन किया है। वे भावनाएँ निम्नांकित हैं
अनित्य, अशरण, भव, एकत्व, अन्यत्व, अशौच, आस्रव, सम्बर, निर्जरा, धर्म, लोक एवं बोधि-दुर्लभता ।
इन भावनाओं के विशेष अभ्यास का जैन परम्परा में एक मनोवैज्ञानिकता पूर्ण व्यवस्थित क्रम रहा है । मानसिक आवेगों को क्षीण करने के लिए भावनाओं के अभ्यास का बड़ा महत्त्व है ।
आलम्बन, अनुप्रेक्षा, भावना आदि का जो विस्तृत विवेचन जैन (योग के) आचार्यों ने किया है, उसके पीछे विशेषतः यह अभिप्रेत रहा है कि चित्तवृत्तियों के निरोध के लिए अपेक्षित निर्मलता, विशदता एवं उज्ज्वलता का अन्तर्मन में उद्भव हो सके ।
आचार्य हेमचन्द्र का अनुभूत विवेचन
आचार्य हेमचन्द्र के योगशास्त्र का अन्तिम प्रकाश (अध्याय) उनके अनुभव पर आधृत है। उसका प्रारम्भ
करते हुए वे लिखते हैं
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