________________
जैन योग : उद्गम, विकास, विश्लेषण, तुलना | ३५५
००००००००००००
००००००००००००
४
AUTORIES
होता जाता है । प्रश्न व्याकरण सूत्र के सम्बर द्वार तथा व्याख्याप्रज्ञप्ति सूत्र के पच्चीसवें शतक के सप्तम उद्देशक आदि अनेक आगमिक स्थलों में ध्यान आदि का विशद विश्लेषण हुआ है।
महर्षि पतञ्जलि ने बाहर--आकाश, सूर्य, चन्द्र आदि; शरीर के भीतर नाभिचक्र, हत्कमल आदि में से किसी एक देश में चित्त-वृत्ति लगाने को धारणा५४ कहा है। उसमें-ध्येय-वस्तु में वृत्ति की एकतानता अर्थात् उसी वस्तु में चित्त का एकाग्र हो जाना ध्यान १५ है। जब केवल ध्येय मात्र की ही प्रतीति हो तथा चित्त का अपना स्वरूप शून्य जैसा हो जाय, तब वह ध्यान समाधि१६ हो जाता है । धारणा, ध्यान और समाधि का यह संक्षिप्त वर्णन है । भाष्यकार व्यास ने इनका बड़ा विस्तृत तथा मार्मिक विवेचन किया है।
आन्तरिक परिष्कृति, आध्यात्मिक विशुद्धि के लिए जैन साधना में भी ध्यान का बहुत बड़ा महत्त्व रहा है । अन्तिम तीर्थंकर महावीर का अन्यान्य विशेषणों के साथ एक विशेषण ध्यान-योगी भी है। आचारांग सूत्र के नवम अध्ययन में जहाँ भगवान महावीर की चर्या का वर्णन है, वहाँ उनकी ध्यानात्मक साधना का भी उल्लेख है। विविध आसनों से विविध प्रकार से, नितान्त असंग भाव से उनके ध्यान करते रहने के अनेक प्रेरक प्रसंग वहाँ वर्णित हैं। एक स्थान पर लिखा गया है कि वे सोलह दिन-रात तक सतत ध्यानशील रहे। अतएव उनकी स्तवना में वहीं पर कहा गया है कि वे अनुत्तर ध्यान के आराधक हैं। उनका ध्यान शंख और इन्दु की भांति परम शुक्ल है।
वास्तव में जन-परम्परा की जैसी स्थिति आज है, महावीर के समय में सर्वथा वैसी नहीं थी। आज लम्बे उपवास, अनशन आदि पर जितना जोर दिया जाता है, उसकी तुलना के मानसिक एकाग्रता, चैतसिक वृत्तियों का नियन्त्रण, ध्यान, समाधि आदि गौण हो गये हैं। फलतः ध्यान सम्बन्धी अनेक तथ्यों का लोप हो गया है।
स्थानांग सूत्र अध्ययन चार उद्देशक एक, समवायांग सूत्र समवाय चार, आवश्यक-नियुक्ति कायोत्सर्ग अध्ययन में तथा और भी अनेक आगम-ग्रन्थों में एतत्सम्बन्धी सामग्री पर्याप्त मात्रा में बिखरी पड़ी है
__ आचार्य हेमचन्द्र और शुभचन्द्र ने ध्याता की योग्यता व ध्येय के स्वरूप का विवेचन करते हुए ध्येय को पिण्डस्थ, पदस्थ, रूपस्थ और रूपातीत-यों चार प्रकार का माना है। उन्होंने पार्थिवी, आग्नेयी, वायवी, वारुणी और तत्त्व भू के नाम से पिण्डस्थ ध्येय की पाँच धारणाएँ बताई हैं, जिनके सम्बन्ध में ऊहापोह की विशेष आवश्यकता है। इसी प्रकार पदस्थ, रूपस्थ और रूपातीत ध्यान का भी उन्होंने विस्तृत विवेचन किया है, जिनका सूक्ष्म अनुशीलन अपेक्षित है।
आचार्य हेमचन्द्र के योगशास्त्र के सप्तम, अष्टम, नवम, दशम और एकादश प्रकाश में ध्यान का विशद वर्णन है।
धर्म-ध्यान और शुक्ल-ध्यान, जो आत्म-नर्मल्य के हेतु हैं, का उक्त आचार्यों (हरिभद्र, हेमचन्द्र, शुभचन्द्र) ने अपने ग्रन्थों में सविस्तार वर्णन किया है। ये दोनों आत्मलक्षी हैं । शुक्ल ७ ध्यान विशिष्ट ज्ञानी साधकों के होता है। वह अन्तःस्थैर्य या आत्म-स्थिरता की पराकाष्ठा की दशा है । धर्म-ध्यान उससे पहले की स्थिति है, वह शुभ मूलक है । जैन-परम्परा में अशुभ, शुभ और शुद्ध इन तीन शब्दों का विशेष रूप से व्यवहार हुआ है। अशुभ पापमूलक, शुभ पुण्यमूलक तथा शुद्ध पाप-पुण्य से अतीत निरावरणात्मक स्थिति है।
धर्म-ध्यान के चार भेद हैं-आज्ञा-विचय, अपाय-विचय, विपाक-विचय तथा संस्थान-विचय । स्थानांग, समवायांग, आवश्यक आदि अर्द्धमागधी आगमों में विकीर्ण रूप में इनका वर्णन मिलता है।
आज्ञा, अपाय, विपाक और संस्थान-ये ध्येय हैं। जैसे स्थूल या सूक्ष्म आलम्बन पर चित्त एकाग्र किया जाता है। वैसे ही इन ध्येय विषयों पर चित्त को एकाग्र किया जाता है । इनके चिन्तन से चित्त की शुद्धि होती है, चित्त निरोध दशा की ओर अग्रसर होता है, इसलिए इनका चिन्तन धर्म-ध्यान कहलाता है।
धर्म-ध्यान चित्त-शुद्धि या चित्त-निरोध का प्रारम्भिक अभ्यास है। शुक्ल-ध्यान में यह अभ्यास परिपक्व हो जाता है।
मन सहज ही चञ्चल है। विषयों का आलम्बन पाकर वह चञ्चलता बढ़ती जाती है। ध्यान का कार्य उस चंचल एवं भ्रमणशील मन को शेष विषयों से हटा, किसी एक विषय पर स्थिर कर देना है।
ज्यों-ज्यों स्थिरता बढ़ती है, मन शान्त और निष्प्रकम्प होता जाता है। शुक्ल-ध्यान के अन्तिम चरण में मन
AIN
کے ا
VEERaftar
Jalthcare
www.jainelibrary.org