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अभिनन्दनीय वृत्त : सौभाग्य मुनि 'कुमुद' | ६
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स्तोक ज्ञान साधना के साथ मुनिश्री ने पूज्यश्री के सान्निध्य में शास्त्रवाचन भी प्रारम्भ कर दिया।
सं० १९८३ का पूज्य श्री का चातुर्मास अर्थात् नवदीक्षित मुनिश्री का प्रथम चातुर्मास जयपुर हुआ। दीक्षा को केवल नौ माह हुए थे, पूज्यश्री ने आज्ञा दी-"मध्याह्न को सभा में शास्त्रवाचन करो !"
जयपुर की परिषद् कोई तुच्छ परिषद् तो थी नहीं ! भंवरीलालजी मूसल, गट्ट लालजी, गुलाबचन्दजी जैसे शास्त्रज्ञ श्रावक तथा गुमानबाई, सिरेबाई जैसी विदुषी श्राविकाएँ जहाँ उपस्थित रहती हों, वैसी परिषद् में निर्दोष शास्त्रवाचन करना कसौटी पर चढ़ने जैसा था केवल नौ माह से दीक्षित मुनि के लिये तो और कठिन परीक्षा की घड़ी थी। किन्तु मुनिश्री अनुत्तीर्ण नहीं हुए। बड़े चातुर्य तथा साहस के साथ शास्त्र-वाचन करते रहे।
श्री भंवरीलालजी से शास्त्रों की वाचना भी लिया करते । मूसलजी कितनी भक्ति और प्रेम से वाचनी देते थे, उसका वर्णन करते हुए आज भी गुरुदेव उनके प्रति कृतज्ञ हो उठते हैं।
सं० १९८४ का चातुर्मास जोधपुर था । वहाँ लच्छीरामजी सांड अच्छे शास्त्रज्ञ थे। मुनिश्री ने उनसे भी शास्त्र ज्ञान प्राप्त किया।
इसी तरह मुनिश्री ने श्री भैरोंदानजी सेठिया आदि कई विद्वान् शास्त्रज्ञ श्रावकों से शास्त्रज्ञान प्राप्त किया। जिज्ञासा जब बलवती होती है तो छोटे-बड़े ऊँच-नीच के सारे भेद गौण हो जाया करते हैं।
यह तीव्र जिज्ञासा का ही परिणाम था कि श्रावकों से भी शास्त्रवाचन लेने में कभी संकोच नहीं किया। वह अनेकता भी मधुर थी
गुरुदेव ने बताया कि जब हमारा जोधपुर चातुर्मास था उसी वर्ष जैन दिवाकरजी महाराज तथा पूज्यश्री कानमल जी महाराज (मारवाड़ी) के भी चातुर्मास वहीं थे।
तीनों न केवल अलग-अलग स्थानों में ठहरे थे, व्याख्यान भी तीनों के भिन्न-भिन्न स्थानों में होते थे। किन्तु परस्पर ऐसा अद्भुत प्रेम था कि देखते ही बनता । जब परस्पर मिलते तो सगे भाइयों से भी अधिक स्नेह प्रकट होता । कोई किधर भी व्याख्यान में जाए, कोई टोकाटोकी नहीं थी, न निन्दा विकथा थी। न आरोप-प्रत्यारोप, चारों माह सन्तों और संघ में बड़े प्रेम की गंगा बही। उसी वर्ष श्री आनन्दराजजी सुराणा के श्रम तथा सभी मुनिराजों के सदुपदेश से जोधपुर की जनता ने प्रतिवर्ष पyषण में बाजार बन्द रखने का क्रान्तिकारी ऐतिहासिक निश्चय किया, जो अब तक चल रहा है।
यद्यपि उस समय अलग-अलग सम्प्रदायें थीं, आचार्य भी अपने अलग-अलग थे। किन्तु परस्पर जो आत्मीयता रही, वह आज भी याद आती है। सचमुच वह अनेकता भी मधुर थी। बीकानेर में
भारत में जैसे वाराणसी, उज्जैन, कश्मीर आदि सरस्वती के केन्द्र माने जाते हैं, उसी तरह बीकानेर जैन विद्या का सरस्वती-केन्द्र रहा है । विद्या और लक्ष्मी के सुपात्र सेठ अगरचन्द भैरूदान सेठिया जैसे शासन-सेवी ने बीकानेर के गौरव को पल्लवित करने में बड़ा योग दिया ।
पूज्यश्री के जोधपुर के सफल चातुर्मास की कीत्ति-सुवास बीकानेर पहुंच चुकी थी। बीकानेर संघ साग्रह विनय कर पूज्यश्री को बीकानेर ले गया, गुरुदेव श्री भी साथ थे। गुरुदेव बताया करते हैं कि वहाँ ज्ञानाभ्यास का बड़ा अच्छा सुयोग मिला । सेठियाजी के विशाल पुस्तकालय में शास्त्रों का सुन्दर संकलन देखा। वहाँ पं० श्री चांदमलजी महाराज (बड़े) विराज रहे थे । बड़ा प्रेममय मधुर-मिलन रहा । संघर्ष टल गया
सं० १९८५ वें वर्ष का चातुर्मास सादड़ी (मारवाड़) था। मारवाड़-सादड़ी गोडवाड़ प्रान्त का प्रमुख क्षेत्र है। एक हजार के लगभग मूर्तिपूजक समाज के घर होंगे । स्था० जैन समाज के तीन सौ घर हैं। पूरे गोडवाड़ प्रान्त में
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