SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 393
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 000000000000 * 000000000000 27 00000000 ए ३४४ | पूज्य प्रवर्तक श्री अम्बालालजी महाराज — अभिनन्दन ग्रन्थ मैं संसार में परिभ्रमण कर रहा हूँ। यह संसार अनित्य है । जब तक मैं इससे बंधा हूँ, तब तक ही मैं संसारी हूँ, इत्यादि भावना का होना । धर्मध्यान के लक्षण, आलम्बन एवं अनुप्रेक्षाओं को दृष्टिगत करने पर यह निष्कर्ष निकलता है कि इसके लिए श्रद्धा (दर्शन) स्वाध्याय एवं भावना की विशेष अपेक्षा होती है । २. शुक्लध्यान — धर्मध्यान की तरह शुक्लध्यान की भी चार विशेष स्थितियाँ (चरण) हैं । इस ध्यान की इन स्थितियों को पूर्वार्द्ध और उत्तरार्द्ध ( शुक्लध्यान) के रूप में दो युग्मों में भी विभाजित किया जा सकता है । क्योंकि इन दोनों युग्मों की दोनों स्थितियां परस्परापेक्षित स्वभाववाली हैं। इन चारों प्रकार की स्थितियों का स्वरूप जैनागम के अनुसार इस प्रकार माना गया है (१) पृथक्त्ववितर्क - ( सविचारी ) – शुक्लध्यान सामान्यतः विशिष्टज्ञानी ( पूर्वधर) मुनि को होता है । यह मुनि पूर्वश्रुत के अनुसार द्रव्य विशेष के आलम्बन से ध्यान करता है किन्तु उसकी किसी भी एक परिणति पर या किसी भी एक स्थिति पर स्थिर नहीं रहता है । उस द्रव्य की विविध परिणतियों पर परिभ्रमण करता हुआ शब्द से अर्थ एवं अर्थ से शब्द पर तथा काय वाङ् मन में एक से दूसरी प्रवृत्ति पर संक्रमण करता हुआ भिन्न-भिन्न दृष्टियों से उन पर चिन्तन करता है । ऐसे मुनि को 'पृथक्त्ववितर्क' - सविचारी, माना गया है। जैनपद्धति में 'वितर्क' को 'श्रुतावलम्बी विकल्प' तथा 'विचार' को 'परिवर्तन' के रूप में माना गया है, जबकि योगदर्शन में शब्द, अर्थ तथा ज्ञान के विकल्पों से संकीर्ण समापत्ति को 'सवितर्का' की संज्ञा दी गयी है । यह मुनि पूर्वश्रुत के अनुसार जब किसी एक द्रव्य विशेष का आलम्बन लेकर उसके किसी एक परिणाम विशेष पर अपने चित्त को स्थिर करता है, अर्थात् उसका मन शब्द, अर्थ, वाणी तथा संसार में संक्रमण नहीं करता है तब ऐसे ध्यान को (२) एकत्ववितर्क - ( अविचारी ) कहा जाता है । इन दोनों प्रकारों में स्थूल और सूक्ष्म दोनों प्रकार के पदार्थ आलम्बन रूप होते हैं। इन दोनों के ही अभ्यास से मोहनीय, ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अन्तराय कर्म क्षीण होते हैं । ततश्च आत्मा सर्वज्ञ, सर्वदृष्टा, तथा अनन्तशक्ति से सम्पन्न एवं विरक्त हो जाता है । इस स्थिति के उपरान्त साधक तब तक 'जीवनक्रिया' या 'जीव-पर्याय' से संयुक्त रहता है जब तक कि उसका 'आयुकर्म' शेष रहता है । (३) सूक्ष्म क्रिय - ( अप्रतिपाती) - इस ध्यान स्थिति में साधक के मन, वाणी और काय का क्रमशः निरोध होता है । अत: योगी के एकमात्र सूक्ष्मक्रिया - 'श्वासोच्छ्वास' शेष रह जाती है । किन्तु (४) समुच्छिन्नक्रिय ( अनिवृत्ति) ध्यान स्थिति में इस क्रिया का भी निरोध हो जाता है। इस प्रक्रिया के निरोध के तुरन्त पश्चात् 'पञ्चमात्राकालमात्र ' (अ, इ, उ, ऋ, लृ, पाँच ह्रस्व स्वरों के उच्चारणकाल मात्र) तक ही साधक सशरीरी रहता है । तत्पश्चात् मुक्ति को प्राप्त हो जाता है। अर्थात् साधक योगी 'एकत्ववितर्क' शुक्लध्यान तक 'सयोगिकेवली' की स्थिति में रहता है किन्तु 'सूक्ष्मक्रिय' ध्यान की स्थिति से उसकी 'अयोगिकेवली - अवस्था' प्रारम्भ होती है और 'समुच्छिन्नक्रिय' शुक्लध्यान की स्थिति में उसे पूर्णता प्राप्त हो जाती है । इसी स्थिति में 'तपोयोग' के बारहवें तथा 'आभ्यन्तर तप' के छठवें तप व्युत्सर्ग की सत्ता स्पष्ट हो जाती है जिसका अर्थ है - 'देहाध्यास से मुक्ति ।' शुक्लध्यान के लक्षण, आलम्बन एवं अनुप्रेक्षाएं- धर्मध्यान की तरह शुक्लध्यान के भी लक्षण, आलम्बन एवं अनुप्रेक्षाओं का चातुविध्य स्वीकार किया गया है । लक्षण चातुविध्य का प्रारम्भ इस प्रकार है १ अव्यथ - जिससे व्यथा का अनुभव न हो अर्थात् कष्टों के सहन करने में अचल धैर्य की प्राप्ति । २ असम्मोह -जगत के स्थूल सूक्ष्म उभयविध पदार्थों के प्रति मोह का अभाव अर्थात् जगत के माया जाल में मौठ्य का न होना । ३ विवेक - ज्ञान के साक्षात्कार के उपरान्त देह और आत्मा में स्पष्टतः भेदबुद्धि, तथा ४ व्युत्सर्ग- शरीर तथा इसके सुख-गारदि के उपकरणभूत साधनों के प्रति निर्लिप्तभाव । आलम्बन चातुविध्य का स्वरूप इस प्रकार जैनागमों में उपलब्ध होता है --- (१) क्षमा - ( अक्रोध ) - क्रोध रहित होकर कटु, अपमान सूचक प्रसङ्गों में शब्दों एवं व्यवहारों को उपेक्षाभाव से देखना, (२) मुक्ति ( लोभराहित्य) - जगत के सर्वविध पदार्थों के प्रति अनुपादेय बुद्धि से सम्बन्धविच्छेद । (३) मार्दव ( अभिमान शून्यता ) – जगत के प्रति विरक्त भाव होने पर 'यह मुझ में भाव है' 'अतः मैं अन्य जगत जीवों से विशिष्ट हूँ, अथवा 'मैं इन्द्रियनिग्रही हूँ' इत्यादि एकच एत rivate & Personal Use Only Www.jainelibrat
SR No.012038
Book TitleAmbalalji Maharaj Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaubhagyamuni
PublisherAmbalalji Maharaj Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1976
Total Pages678
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size26 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy