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जनदर्शन में अजीव द्रव्य | ३३७
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तीन द्रव्यों का साधर्म्य है । निश्चयनय की दृष्टि से यों तो सभी द्रव्य स्वप्रतिष्ठित हैं पर व्यवहारनय की दृष्टि से आकाश इतर द्रव्यों का आधार है। धर्मास्तिकाय और अधर्मास्तिकाय आदि द्रव्यों के सम्बन्ध के कारण आकाश के दो भेद हो जाते हैं-(१) लोकाकाश, (२) अलोकाकाश । आइन्स्टाइन ने कहा है कि आकाश की सीमितता उसमें रहने वाले Matter के कारण है अन्यथा आकाश अनन्त है। इसी तरह जैनदर्शन की भी मान्यता है कि जहाँ तक धर्म, अधर्म आकाश से सम्बन्धित हैं वहाँ तक लोकाकाश है, उसके परे अलोकाकाश है जो कि अनन्त है । धर्म, अधर्म और आकाश ये तीनों द्रव्य अमूर्त होने के कारण इन्द्रियगम्य न होने के कारण लौकिक प्रत्यक्ष के द्वारा इनकी सिद्धि नहीं हो सकती । आगम प्रमाण से और उनके कार्यों को देखकर किये गये अनुमान प्रमाण से उनकी सिद्धि की जाती है।
जीव और पुद्गल की गति एवं स्थिति के उपादान कारण तो वे स्वयं हैं लेकिन निमित्त कारण, जो कार्य की उत्पत्ति में अवश्य अपेक्षित है एवं जो उपादान कारण से भिन्न है, धर्म-अधर्म द्रव्य हैं । इस प्रकार इन द्रव्यों की गति में निमित्त कारण धर्मास्तिकाय है तो अधर्मास्तिकाय उनकी स्थिति में निमित्त कारण है । ये दोनों उदासीन हेतु है-जैसे मछली की गति में जल और श्रान्त पथिक को विश्राम के लिए वृक्ष । इन सब द्रव्यों को आश्रय देने वाला आकाश है। आधुनिक विज्ञान में स्थिति, गति और गति निरोध को Space के कार्यों के रूप में माना गया है लेकिन जैन दर्शन में इन तीन द्रव्यों के ये तीन स्वतन्त्र कार्य हैं। Locality की दृष्टि से ये तीनों द्रव्य समान हैं पर कार्यों की दृष्टि से उनमें भेद है।
अब हम काल द्रव्य को भी देख लें। "वर्तनापरिणामक्रियापरत्वापरत्वे च कालस्य"४ वर्तना, परिणाम, क्रिया, परत्व, अपरत्व काल के ही कारण संभव है । फ्रांस के प्रसिद्ध वैज्ञानिक बर्गसन् ने सिद्ध किया है कि काल एक Dynamic reality है । काल भी उपर्युक्त द्रव्य की तरह अनुमेय है । भिन्न-भिन्न क्षणों के वर्तमान रहना वर्तना है । परिणामः अर्थात् अवस्थाओं का परिवर्तन भी बिना काल के सम्भव नहीं है। कोई कच्चा आम समय पाकर पक जाता है। आम की दोनों विभिन्न अवस्थायें एक समय में एक साथ नहीं हो सकतीं । क्रिया व गति तब भी सम्भव होती है जब कोई वस्तु पूर्वापर क्रम से भिन्न अवस्थाओं को धारण करती है और यह बिना काल के सम्भव नहीं है। प्राचीन व नवीन, पूर्व और पाश्चात्य आदि व्यवहार भी काल के बिना सम्भव नहीं हो पाते हैं । काल के दो भेद हैं-(१) पारमार्थिक काल, (२) व्यावहारिक काल । इनमें से पारमार्थिक काल नित्य, निराकार, अनन्त है एवं इसे ही भिन्न-भिन्न उपाधियों से सीमित करने से या विभक्त करने से दण्ड, दिन, मास, वर्ष आदि समय के रूप बनते हैं जो कि व्यावहारिक काल हैं । व्यावहारिक काल का प्रारम्म और अन्त होता है।
दृश्यात्मक अखिल जगत् पुद्गलमय है।" तत्त्वार्थ-सूत्र के अनुसार इसकी परिभाषा है-"स्पर्शरसगन्धवर्णवन्तः पुद्गलाः" तथा सर्वदर्शनसंग्रह के अनुसार "पूरयन्ति गलन्ति च पुद्गलाः ।" वैशेषिक के पृथ्वी, जल, अग्नि आदि तत्त्वों का अन्तर्भाव पुद्गल द्रव्य में हो जाता है। विज्ञान में Matter को ठोस, तरल एवं गैस (Gases) के रूप में माना गया है । इस दृष्टि से पृथ्वी, जल तथा वायु पुद्गल द्रव्य में अन्तर्भूत हो जाते हैं । विज्ञान जिसको Matter
और न्याय-वैशेषिक जिसे भौतिक तत्त्व या सांख्य जिसे प्रकृति कहते हैं, जैनदर्शन में उसे पुद्गल की संज्ञा दी गई है। यद्यपि पुद्गल शब्द का प्रयोग बौद्ध-दर्शन में भी हुआ है लेकिन वह भिन्न अर्थ में-आलयविज्ञान, चेतना-संतति के अर्थ में हुआ है । वैशेषिक आदि दर्शन में पृथ्वी को चतुर्गुणयुक्त, जल को गन्धरहित अन्य तीन गुणों वाला, तेज को गन्ध और रस रहित अन्य दो गुणों वाला तथा वायु को मात्र स्पर्श युक्त माना गया है; परन्तु जैन-दर्शन में पृथ्वी, जल, तेजस्, वायु का भेद मौलिक और नित्य नहीं है अपितु व्युत्पन्न और गौण है, क्योंकि पृथ्वी जल आदि सभी के पुद्गलों में वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्श ये चारों गुण पाये जाते हैं । विज्ञान भी मानता है कि वर्ण, गन्ध, रस व स्पर्श इन चतुष्कोटि में से किसी एक के प्राप्त होने पर शेष गुण भी उस वस्तु में व्यक्त या अव्यक्त रूप से रहते हैं । गन्धवहन की प्रक्रिया से सिद्ध हुआ है कि अग्नि में भी गन्ध पायी जाती है।
वर्ण के पाँच, गन्ध के दो, रस के पाँच तथा स्पर्श के आठ प्रकार हैंवर्ण--(१) काला, (२) नीला, (३) लाल, (४) पीला, (५) सफेद, गन्ध-(१) सुगन्ध, (२) दुर्गन्ध, रस-(१) तिक्त, (२) कडुआ, (३) कषैला, (४) खट्टा, (५) मीठा, स्पर्श-(१) कठिन, (२) मृदु, (३) गुरु, (४) लघु, (५) शीत, (६) उष्ण, (७) रूक्ष, (८) स्निग्ध ।
DAATI
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