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३३२ | पूज्य प्रवर्तक श्री अम्बालालजी महाराज - अभिनन्दन ग्रन्थ
अप्पाणमेव जुज्झाहि, किं ते जुज्झेण बज्झओ । अप्पाणमेवमप्पाणं, जइत्ता अप्पाचेव दमेयव्वो, अप्पा हु खलु अप्पा दन्तो सुही होइ, अस्सिं लोए परत्थ य ।। २५
सुहमेहए ॥ २४
दुद्दमो ।
दुर्जेय संग्राम में सहस्रों योद्धाओं को जीत लेना संभव है पर, उससे भी बड़ी बात यह है कि साधक अपनी आत्मा को जीते । यह जय परम जय है । सहस्रों व्यक्तियों को शस्त्र बल से जीतने वाले अनेक लोग मिल सकते हैं पर आत्म-विजेता आत्मबल के धनी कोई विरले ही होते हैं ।
साधक ! तुम अपने आपसे जूझो, बाहर से जूझने पर क्या बनेगा । आत्मा द्वारा आत्मा को जीत लोगे तो वास्तव में सुखी बन पाओगे ।
तुम आत्मा का - अपने आपका दमन करो। अपने आपका दमन करना ही कठिन है । जो आत्म-दमन साध लेता है, वह इस लोक में और पर-लोक में सुखी होता है ।
आचारांग सूत्र में भी इसी प्रकार के शब्दों में साधक को प्रेरित किया गया है
"इमेण चेव जुज्झाहि किं ते जुज्झेण बज्झओ । जुद्धारिह खलु दुल्लभं । ३६
अर्थात् मुमुक्षो ! इसी आत्मा से तुम युद्ध करो, बाहरी युद्ध से तुम्हारा क्या सघेगा। यह आत्मा ही युद्ध योग्य है। क्योंकि इसे वशंगत करना बहुत कठिन है ।
सूत्रकृतांग सूत्र में यह सन्देश निम्नांकित शब्दों में मुखरित हुआ है—
" संबुज्झह किं न बुज्झह बोही खलु पेच्च दुल्लहा 1
नो हूवणमन्ति राइयो, नो सुलभं पुणरावि जीवियं ॥ २७
साधक ! तुम जरा समझो, क्यों नहीं समझ रहे हो ! यदि यह मनुष्य जीवन गंवा दिया तो फिर सम्बोधिसद्बोध - सम्यक्ज्ञान प्राप्त करना ही कठिन होगा। स्मरण रखो, जो रातें बीत जाती हैं, वे लौटकर नहीं आतीं। यह
मानव भव बार-बार नहीं मिलता ।
अपनी शक्ति को जगाने के लिए यह आवश्यक है कि व्यक्ति सबसे पहले यह अनुभव करे कि वह वस्तुतः दुर्बल नहीं है । जैसा कि स्वामी विवेकानन्द ने कहा है, मानव में असीम शक्तियों का निधान भरा है। गल्ती यही है कि वह उन्हें भूले रहता है । शक्तिबोध के साथ-साथ करणीयता - बोध भी आवश्यक है । ऊपर उद्धृत गाथाओं में आत्मजागरण के इन दोनों पक्षों को जैन-तत्त्वदर्शियों ने जिस सशक्त व ओजपूर्ण शब्दावली में उपस्थित किया है, वह निःसन्देह मानव के भावों में उत्साह और स्फूर्ति का संचार करते हैं ।
आनन्द की स्वर्णिम बेला
कामना, लालसा, लिप्सा और आसक्ति के परिवर्जन से जीवन में सहज भाव का उद्भव होता है । तब साधक जिस पर-पदार्थ-निरपेक्ष, आत्म-प्रसूत असीम सुख का अनुभव करता है, न उसके लिए कोई उपमान है और न शब्दव्याख्येयता की सीमा में ही वह आता है । तब साधक इतना आत्माभिरत हो जाता है कि जगत् के विभ्रामक जीवन से स्वयं उसमें पराङ्मुखता आ जाती है । तभी तो गीताकार ने कहा है
या निशा सर्वभूतानां तस्यां जागत संयमी ।
यस्यां जाग्रति भूतानि सा निशा पश्यतो मुनेः ॥ २८
सब प्राणियों के लिए जो रात है, संयमानुरत साधक उसमें जागता है । अर्थात् जिस आत्म-संस्मृति, स्वभावरमणरूप कार्य में संसार सुषुप्त है—अक्रियाशील है, अप्रबुद्ध है, साधक उसमें सतत उद्बुद्ध एवं चरणशील- गतिशील है । जिस अनाध्यात्मिक एषणा व आसक्तिमय कार्यकलाप में सारा जगत जागृत है, वहाँ वह सुषुप्त है ।
फरुक ठ
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