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________________ स्थितप्रज्ञ और वीतराग : एक समीक्षात्मक विश्लेषण | ३२६ ०००००००००००० ०००००००००००० . ANSAR सामा SED UITYMIR ANTURIA जिसमें साधक, अपने समग्र क्रियाकलाप में परिष्कार कैसे आए, निर्बन्धावस्था कैसे रहे, की जिज्ञासा करता है । वहाँ सूत्रकार थोड़े से शब्दों में बड़ा सुन्दर समाधान देते हैं जयं चरे जयं चिढ़े, जयमासे जयं सए। जयं भुजतो भासंतो, पावकम्म न बंधइ॥"५८ साधक यत्न-जागरूकता या विवेकपूर्वक चले, खड़ा हो, बैठे, सोए, बोले तथा खाए। इस प्रकार यत्न या जागरूक भाव से इन क्रियाओं को करता हुआ वह पाप-कर्म से बँधता नहीं । इस सन्दर्भ में आचारांगसूत्र का एक प्रसंग है, जिसे प्रस्तुत विषय के स्पष्टीकरण के हेतु उपस्थित करना उपयोगी होगा "ण सक्का ण सोउं सहा, सोतविसयमागया। रागदोसा उ जे तत्थ, ते भिक्खू परिवज्जए । ण सक्का रुवमद्दढुं, चक्खुविसयमागयं । रागदोसा उ जे तत्थ, ते भिक्खू परिवज्जए । ण सक्का गंधमग्याउं, णासाविसयमागयं । रागदोसा उजे तत्थ, ते भिक्खू परिवज्जए॥ ण सक्का रसमस्साउं, जीहाविसयमागयं । रागदोसा उ जे तत्थ, ते भिक्खू परिवज्जए। ण सक्का फासमवेएउ, फासं विसयमागयं । रागदोसा उ जे तत्थ, ते भिक्खू परिवज्जए॥"१६ जब तक श्रोत्रेन्द्रिय है, चक्षु इन्द्रिय है, घ्राणेन्द्रिय है, रसनेन्द्रिय है, स्पर्शनेन्द्रिय है, शब्द, रूप, गन्ध, रस व स्पर्श का ग्रहण न किया जाए, यह सम्भव नहीं है । पर इन सबके साथ रागात्मक या द्वेषात्मक भाव नहीं जुड़ना चाहिए। यह स्थिति तब बनती है, जब श्रवण, दर्शन, आघ्राण-रसन तथा स्पर्शन मन पर छाते नहीं, मन इनमें जब न रस ही लेता है और न उलझता ही है। गीताकार ने कच्छप के इन्द्रिय-संकोच के उपमान से इन्द्रियों को तत्सम्बद्ध विषयों से विनिवृत्त करने की जो बात कही है, वह प्रस्तुत विवेचन से तुलनीय है। इन्द्रियों की इन्द्रियार्थ से विनिवृत्ति का तात्पर्य यह है कि इन्द्रियाँ अपने-अपने कार्य में संचरणशील रहते हुए तन्मय नहीं होतीं, उनमें रमती नहीं। यही अनासक्तता या निर्लेप की अवस्था है। उत्तराध्ययन सूत्र में एक दृष्टान्त से इसे बड़े सुन्दर रूप में समझाया है "उल्लो सुक्खो य दो छुढा, गोलया मट्टियामया। दो वि आवडिया कुड्डे, जो उल्लो सोऽत्थ लग्गई ।। एवं लग्गन्ति दुम्मेहा, जे नरा कामलालसा । विरत्ता उ न लग्गन्ति, जहा से सुक्क गोलए ।।२० मिट्टी के दो गोले हैं-एक सूखा, दूसरा गोला। दोनों यदि दीवाल पर फेंके जाएँ तो गीला गोला दीवाल पर चिपक जायेगा और सूखा गोला नहीं चिपकेगा । इसी प्रकार जो कलुषित बुद्धि के व्यक्ति कामनाओं व एषणाओं में फंसे हैं, गीले गोले की तरह उन्हीं के बन्ध होता है। जो विरक्त हैं-काम-लालसा से अनाकृष्ट हैं, उन्मुक्त हैं, वे सूखे गोले की तरह नहीं चिपकते, नहीं बंधते । आचार्य पूज्यपाद ने बड़े उद्बोधक शब्दों में कहा है-- "रागद्वेषादिकल्लोलैरलोलं यन्मनो जलम् । स पश्यत्यात्मनस्तत्त्वं तत्ववित् नेतरो जनः॥" शिल HIMIRI A
SR No.012038
Book TitleAmbalalji Maharaj Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaubhagyamuni
PublisherAmbalalji Maharaj Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1976
Total Pages678
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size26 MB
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