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जैनागमों में मुक्ति : मार्ग और स्वरूप | ३१५
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(५) स्थविर महाराज का सत्कार-सन्मान करने वाले। (६) बहुश्रुत की विनय-भक्ति करने वाले । (७) तपस्वी की विनय-भक्ति करने वाले । (क) निरन्तर ज्ञानाराधना करने वाले । (९) निरन्तर दर्शनाराधना करने वाले । (१०) ज्ञान और ज्ञानी का विनय करने वाले । (११) भावपूर्वक षडावश्यक करने वाले । (१२) निरतिचार शीलव्रत का पालन करने वाले। (१३) क्षण भर भी प्रमाद न करने वाले । (१४) यथाशक्ति निदान रहित तपश्चर्या करने वाले । (१५) सुपात्र को शुद्ध आहार देने वाले। (१६) आचार्य यावत् संघ की बैयावृत्य-सेवा करने वाले । (१७) समाधि भाव रखने वाले । (१८) निरन्तर नया-नया ज्ञान सीखने वाले । (१६) श्रुत की भक्ति करने वाले।
(२०) प्रवचन की प्रभावना करने वाले । १०२ मुक्ति की मंजिलें
(१) संवेग-मुक्ति की अभिरुचि । (२) निर्वेद-विषयों से विरक्ति । (३) गुरु और स्वधर्मी की सेवा । (४) अनुप्रेक्षा-सूत्रार्थ का चिन्तन-मनन करना । (५) व्यवदान-मन, वचन और काय योग की निवृत्ति । (६) विविक्त शय्यासन-जन-सम्पर्क से रहित एकान्तवास । (७) विनिवर्तना-मन और इन्द्रियों को विषयों से अलग रखना। (८) शरीर-प्रत्याख्यान-देहाघ्यास से निवृत्ति । (६) सद्भाव-प्रत्याख्यान-सर्व संवर रूप शैलेशी भाव । (१०) वैयावृत्य-अग्लान भाव से सेवा करना । (११) काय समाधारणा-संयम की शुद्ध प्रवृत्तियों में काया को भली-भांति संलग्न रखना। (१२) चारित्र-सम्पन्नता-निरतिचार चारित्राराधन । (१३) प्रेय-राग-द्वेष और मिथ्यादर्शन विजय ।
ये त्रयोदश मुक्ति के सूत्र हैं। इनकी सम्यक् आराधना से आत्मा अवश्य कर्मबन्धनों से मुक्त होता है ।१० 3 मुक्ति के सोपान
आत्मा की मिथ्यात्वदशा एक निकृष्ट दशा है । उस दशा से उत्क्रान्ति करता हुआ आत्मा शुद्ध आत्मस्वरूप को प्राप्त होता है।
उत्क्रान्तिकाल में आत्मा को एक के बाद दूसरी, दूसरी के बाद तीसरी, इस प्रकार क्रमिक अवस्थाओं से पार होना पड़ता है । इन अवस्थाओं को जैनागमों में 'गुणस्थान' कहा है । ये चौदह हैं।
१. मिथ्यादृष्टि गुणस्थान मिथ्यात्वमोहनीय कर्म के तीव्रतम उदय से जिस जीव की दृष्टि (श्रद्धा या प्रतिपत्ति) मिथ्या-विपरीत हो जाती है-वह मिथ्यादृष्टि गुणस्थान वाला कहा जाता है ।
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