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________________ जैनागमों में मुक्ति : मार्ग और स्वरूप | ३०१ वरगति-विश्व में इस गति से अधिक श्रेष्ठ कोई गति नहीं है। यह गति मुक्तात्माओं को प्राप्त होती है। ऊर्ध्वदिशा-आत्मा का निज स्वभाव ऊर्ध्वगमन करने का है । मुक्तात्माओं की स्थिति लोकाग्रमाग में होती है, वह ऊर्ध्वदिशा में है, अत: यह नाम सार्थक है ।१४ दुरारोह-मुक्ति प्राप्त होना अत्यन्त दुर्लभ है। मुक्त होने की साधना जितनी कठिन है उतना ही कठिन मुक्ति प्राप्त करना है ।१४ ___अपुनरावृत्त-मुक्तात्मा की संसार में पुनरावृत्ति नहीं होती है अत: मुक्ति का समानार्थक नाम 'अपुनरावृत्त' 000000000000 ०००००००००००० . PRACHANDA समय शाश्वत-मुक्तात्मा की मुक्ति ध्रव होती है । एक बार कर्मबन्धन से सर्वथा मुक्त होने पर आत्मा पुनः बद्ध नहीं होती है, इसलिए मुक्ति और मुक्ति क्षेत्र दोनों शाश्वत हैं।१७ अव्याबाध-आत्मा के मुक्त होने पर जो उसे शाश्वत सुख प्राप्त होता है, वह समस्त बाधाओं से रहित होता है, इसलिए मुक्ति अव्याबाध है।१८ लोकोत्तमोत्तम-तीन लोक में मुक्ति ही सर्वोत्तम है।१६ मुक्तिक्षेत्र मुक्तिक्षेत्र ऊपर की ओर लोक के अग्रभाग में है ।२० इस क्षेत्र में अनन्त मुक्तात्माएँ स्थित हैं। अतीत, वर्तमान और अनागत इन तीन कालों में मुक्त होने वाली आत्माएँ इसी मुक्तिक्षेत्र में आत्म (निज) स्वरूप में अवस्थित हैं। मानव क्षेत्र मध्यलोक में है और मुक्ति क्षेत्र ऊर्ध्वलोक में है। मानव क्षेत्र और मुक्ति क्षेत्र का आयाम विष्कम्भ समान है। दोनों की लम्बाई-चौड़ाई पैतालीस लाख योजन की है । मानव क्षेत्र के ऊपर समश्रेणी में मुक्तिक्षेत्र अवस्थित है। मुक्तिक्षेत्र की परिधि मानव क्षेत्र के समान लम्बाई-चौड़ाई से तिगुनी है। मुक्तिक्षेत्र की मोटाई मध्य भाग में आठ योजन की है और क्रमशः पतली होती-होती अन्तिम भाग में मक्खी की पांख से भी अधिक पतली है। मुक्तिक्षेत्र शंख, अंकरत्न और कुन्द पुष्प के समान श्वेत स्वर्णमय निर्मल एवं शुद्ध है । यह उत्तान (सीधे खुले हुए) छत्र के समान आकार वाला है। ___ मुक्तिक्षेत्र सर्वार्थसिद्ध विमान से बारह योजन ऊपर है और वहाँ से एक योजन ऊपर लोकान्त है ।२१ मुक्तिक्षेत्र के बारह नाम (१) ईषत्-रत्नप्रभादि पृथ्वियों की अपेक्षा यह (मुक्तिक्षेत्र की) पृथ्वी छोटी है, इसलिए इसका नाम ईषत् है। (२) ईषत् प्राग्भारा-रत्नप्रभादि अन्य पृथ्वियों की अपेक्षा इसका ऊँचाई रूप (प्राग्मार) अल्प है। (३) तन्वी-अन्य पृथ्वियों से यह पृथ्वी तनु (पतली) है। (४) तनुतन्वी-विश्व में जितने तनु (पतले) पदार्थ हैं, उन सबसे यह पृथ्वी अन्तिम भाग में पतली है। (५) सिद्धि-इस क्षेत्र में पहुंचकर मुक्त आत्मा स्व-स्वरूप की सिद्धि प्राप्त कर लेती है। (६) सिद्यालय-मुक्तात्माओं को "सिद्ध" कहा जाता है। क्योंकि कर्मबन्धन से सर्वथा मुक्त होने का कार्य मुक्तात्माओं ने सिद्ध कर लिया है, इसलिए इस क्षेत्र का नाम "सिद्धालय" है। (७) मुक्ति-जिन आत्माओं की कर्मबन्धन से सर्वथा मुक्ति हो चुकी है, उन आत्माओं का ही आगमन इस क्षेत्र में होता है, इसलिए यह क्षेत्र मुक्ति-क्षेत्र है। (८) मुक्तालय-यह क्षेत्र मुक्तात्माओं का आलय (स्थान) है। (8) लोकाग्र-यह क्षेत्र लोक के अग्र भाग में है । (१०) लोकाग्र-स्तूपिका-यह क्षेत्र लोक की स्तूपिका (शिखर) के समान है। MAILLIAMEREARNI TORIERI
SR No.012038
Book TitleAmbalalji Maharaj Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaubhagyamuni
PublisherAmbalalji Maharaj Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1976
Total Pages678
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size26 MB
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