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२८८ | पूज्य प्रवर्तक श्री अम्बालालजी महाराज - अभिनन्दन ग्रन्थ
करता है, किसी के विचारों का खण्डन करता है, मन में द्रोह चिन्तन करता है, दूसरों को क्षति पहुँचाने के उपायों की खोज करता रहता है । इससे हिंसा व्याप्त होती है और समाज पीड़ित होता है। मनुष्य अपने वचन से दूसरे का प्रीणनआह्लादन करे और मन में मानव कल्याण की भावना करे। यही सन्तों की दृष्टि है, उनकी वाणी का अमृतद्रव है । 'स्यादवाद' से वचन-शुद्धि और 'अनेकांतदर्शन' से मानस-शुद्धि होती है । मैं जो कह रहा हूँ, वही सत्य है और दूसरा जो कहता है, वह सत्य नहीं है, यह दृष्टि तात्विक नहीं है । हमें वस्तु के जो धर्म दिखायी पड़ते हैं, उन्हीं के आधार पर हमारा निर्णय होता है । यतः वस्तु के अनन्त धर्म हैं और उनमें से कुछ को ही हमने देखा है, अतः वस्तु के सम्बन्ध में हमारी धारणा विशेष परिधि में सत्य है। दूसरे ने वस्तु के जिन धर्मों को देखा है, उनके आधार पर अपनी धारणा बनायी है, अतः उसकी धारणा भी विशेष स्थिति में सत्य है । अनेकांतदर्शन से मानसशुचिता - अहिंसा की संप्राप्ति होती है, अत: अनेकांतदर्शन में अहिंसा की चरम परिणति है ।
अनेकांतदर्शन और जीवन
अनेकांतदृष्टि का सम्बन्ध जीवन से है। जीवन की सारी समस्याओं और हलचलों की विभावना के बाद ही इस दृष्टि का उदय हुआ है । अनेकांतदर्शन को केवल चितन के स्तर पर रखना भ्रम है। यह जीवन के विषय में निर्मल दृष्टि है । इसको जीवन से मिलाकर संवारना पड़ेगा। जब अनेकांतदृष्टि से निर्मित जीवन का साक्षात्कार होगा, तभी
अनेकांतदृष्टि सार्थक होगी, उसकी सभी आकृतियों की स्पष्ट रूपरेखा अङ्कित की जा सकेगी। अनेकांतदृष्टि जब तक जीवन में उतरेगी नहीं, तब तक वह अरूप रहेगी। यह जीवनदृष्टि जब कर्म के धरातल पर आती है, तब कुछ क्षेत्रों को प्रभावित करती है; जब वचन के धरातल पर आती है, तब उससे अधिक क्षेत्रों को प्रभावित करती है; जब मानस के धरातल पर आती है, तब सारा विश्व प्रभावित होता है। मन में सभी के विचारों के प्रति सद्भाव, सभी प्राणियों के प्रति मङ्गल-भावना के उदय से दिव्य आलोक फैलता है। इसका अभ्यास करके इसके परिणामों को देखा जा सकता है । यदि किसी शत्रु के कल्याण के लिए मन में चिन्तन किया जाय, तो वह मित्र के रूप में परिणत हो जाता है। साधकों ने अपने जीवन में इसे उतारा है।
अनेकान्तदर्शन और मानव-कल्याण
अनेकान्तदर्शन में जो उत्कृष्ट रहस्य सन्निहित है, वह है मानव का परम कल्याणसाधन । दूसरे के विचारों की अवहेलना से अनेक समस्यायें उत्पन्न होती हैं। विश्व में अनेक वाद प्रचलित हैं और प्रत्येक वाद की घोषणा है कि केवल उसी से मानव का कल्याण हो सकता है। इन वादों के समर्थकों में संघर्ष उत्पन्न होता है। एक वाद का समर्थक दूसरे वाद को तुच्छ समझता है और उसे वर्तमान सन्दर्भ में अनुपादेय बताता है। इस प्रकार पारस्परिक संघर्ष से व्यक्तिव्यक्ति में, समुदाय समुदाय में, राष्ट्र-राष्ट्र में दरारें पड़ जाती हैं। इससे बड़ी मयंकर स्थितियाँ उत्पन्न हो जाती हैं, जिससे मानव का बहुत बड़ा अहित होता है, पृथ्वी हिंसा का केन्द्र बन जाती है ।
यह बात निश्चित ही निवेदनीय है कि किसी दर्शन के किसी वैशिष्ट्य के कारण समाज में परिवर्तन नहीं हो सकता। समाज के लिए आधार प्रस्तुत किया गया है। व्यक्ति का कर्तव्य है कि वह निर्देशित मार्ग का अनुगमन करे । अनेकान्तदर्शन में मानव-कल्याण की भावना निहित है । इससे मानससमता की भूमि का उदय होता है। जब
मन में भावना स्थिर हो जाती है कि वस्तुओं के अनन्त धर्म हैं, तब मनुष्य में दूसरे के विचारों के प्रति सद्भावना का उदय होता है। दूसरे के मन की अनुभूतियों को ठीक समझ लेने पर वाणी के द्वारा उसका खण्डन नहीं होगा और न उसके विपरीत कार्य । मन के दूषित हो जाने से वचन दूषित हो जाता है और फिर उससे कर्म दूषित हो जाता है। इससे सारे राष्ट्र में दूषण व्याप्त हो जाता है। मानस समता की सम्प्राप्ति से वचन समता की सम्प्राप्ति होती है और वचनसमता की सम्प्राप्ति से कर्म-समता की सम्प्राप्ति । फिर विघटन होगा क्यों ?
अनेकान्तदर्शन के रूप में जैनदर्शन की देन प्रशंसनीय है। जिस दृष्टि से जैनदर्शन में अनेकान्तदर्शन का स्वरूप रखा गया है, उसी दृष्टि से उसके सम्बन्ध में विचार करना चाहिए। सर्वमङ्गलकामना, शान्ति की स्थापना के मूल का अन्वेषण किया गया है। यह मूल अनेकान्तदर्शन है । इसकी सारी मङ्गिमाओं को समझना चाहिए और फिर प्रयत्न करना चाहिए कि जीवन में उसकी परिणति हो । तर्कजाल से अनेकान्तदर्शन की व्याप्ति को नहीं समझा जा सकता । मेरी दृष्टि में इसको समझने के लिए आधारभूत तत्त्व हैं - श्रद्धा, मङ्गलकामना, दया आदि ।
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