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२ | पूज्य प्रवर्तक श्री अम्बालाल जी महाराज अभिनन्दन ग्रन्थ
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राणा वंश में महाराणा सांगा, महाराणा प्रताप, महाराजा राजसिंह आदि कुछ ऐसे जबरदस्त व्यक्तित्व हो चुके हैं, जो सचमुच बेजोड़ हैं। राणा-परम्परा में कुछ वीरांगनाएँ भी ऐसी हो चुकी हैं, जिन पर मेवाड़ ही नहीं विश्व का नारी वर्ग गर्व कर सकता है । ऐसी सन्नारियों में पद्मिनी और मीरा का नाम सर्वोपरि है।
प्राकृतिक दृष्टि से मेवाड़ एक सम्पन्न प्रदेश है । अरावली पर्वतमाला मेवाड़ की सीमा बनाती हुई दूर तक निकल गई है । मेवाड़ के चारों तरफ और कहीं-कहीं मध्य में भी पहाड़ों की छटा बड़ी सुहावनी है। पहाड़ों के आसपास दूर-दूर तक लम्बे-चौड़े प्रदेश में प्रायः सभी तरह की खेती होती है। खेती मेवाड़ का मुख्य व्यवसाय है।
मेवाड़ अधिकतम गाँवों में बसा हआ है। शहर भी हैं, किन्तु कम ।
मेवाड़ में विकास आधुनिक युग की देन है। मुगलों के निरन्तर आक्रमणों से मेवाड़ सदियों तक उजड़ता रहा । फलत: इसका समुचित विकास नहीं हो सका। आन-शान की रक्षा में मेवाड़ ने गौरव तो पाया किन्तु खुशहाली नहीं पा सका । अंग्रेजों के शासन में मेवाड़ कुछ जम सका। उसके बाद सुखाड़िया सरकार के हाथों यह विकास के पथ पर बढ़ा।
धर्मप्रियता मेवाड़ की रग-रग में है । मेवाड़ संघर्ष की छाया में पला, तलवारों में रहा, बर्ची-भालों में इसने जीवन बिताया, किन्तु अधर्म के लिए नहीं, धर्म के लिए।
मुगलों से लम्बे संघर्ष के पीछे किसी भूमि के टुकड़े का प्रश्न नहीं था । प्रश्न था धार्मिकता और सामाजिकता का । मुगलों को बेटियाँ देना हिन्दू अधर्म समझते हैं, सभी हिन्दुओं का यह निश्चय है। किन्तु मुगलों की जबरदस्त शक्ति से कोई टकराना नहीं चाहते थे, लेकिन मेवाड़ी टकरा गये और टकराते ही रहे । अन्तिम समय तक लोहा लेते रहे । किन्तु मुगलों को डोला नहीं भेजा । यह इनके धर्म का प्रश्न था ।
धर्म मेवाड़ के जन-जीवन का प्राण-तत्त्व है । मेवाड़ी इसकी उपेक्षा नहीं कर सकता। वह घास की रोटी खा सकता है । विशाल सेनाओं से टक्कर ले सकता है । किन्तु वृन्दावन से आये श्रीनाथ-विग्रह को वापस नहीं भेज सकता। किसी चंचल कुमारी की लाज रखने से मुख नहीं मोड़ सकता।
मेवाड़ कटकर या लुटकर भी मुस्कुराने वाला तत्त्व है, बशर्ते कि वह केवल धर्म के नाम से हो । धर्म के मौलिक संस्कारों के तीव्राग्रह ने ही यहाँ कई धार्मिक प्रतिभाओं का सृजन किया जो विश्वविश्रुत है । जिस महान मुनि-व्यक्तित्व का परिचय देने में बैठा हूँ, यह भी मेवाड़ की एक मौलिक कृति है।
उदयपुर जिले में थामला एक ग्राम है, जो मावली जंक्शन से लगभग ६ मील पूर्वोत्तर में है। पूज्य श्री अम्बालालजी महाराज का यही जन्मस्थान है । मैदानी इलाके में बसा हुआ थामला न बहुत बड़ा और न छोटा किन्तु एक मझला अच्छा-सा गाँव है। मेवाड़ राज्य के समय यहाँ चौहान क्षत्रिय राज्य करते थे। चौहान अपनी अद्भुत वीरता के लिये सदा ही प्रसिद्ध रहे हैं । जन्म और बाल्यकाल
थामला के जैन ओसवाल महाजन समाज में सोनी गोत्रीय सज्जनों का बहुत पहले से प्रमुख स्थान रहा है। अपने व्यवसाय में तो ये सज्जन बढ़े-चढ़े थे ही, राज्यसत्ता में भी इनका अग्रगण्य स्थान था। आर्थिक दृष्टि से यह वर्ग प्रायः सम्पन्न ही रहा । आज भी वह सम्पन्नता परिलक्षित होती है। आम्नाय की दृष्टि से ये सभी स्थानकवासी जैन मेवाड़ सम्प्रदाय के अनुयायी थे। किन्तु जब मेवाड़ में तेरापंथ के उद्भव के साथ ही धर्म-परिवर्तन का दौर चला तो उसमें अधिकतर सोनी-परिवार तेरापंथ के अनुयायी हो गये, किन्तु कुछ ऐसे भी थे, जिन्होंने इस धर्म-परिवर्तन के प्रवाह का दृढ़तापूर्वक मुकाबला कर अपनी स्थिरता-दृढ़ता का परिचय दिया।
पूज्य श्री अम्बालालजी महाराज का ऐसे ही एक सोनी-परिवार में जन्म हुआ, जो अपनी सुदृढ़ धार्मिकता के लिये प्रसिद्ध था।
आस-पास के अधिकतर विपरीत प्रभावों, विरोधी पारिवारिक-जनों के मध्य भी अपनी स्वीकृति को स्थायी रखना आसान बात न थी। किन्तु धर्मप्रिय श्री किशोरीलालजी तथा श्रीमती प्यारवाई के लिये यह सहज हो गया। क्योंकि वे धर्म के मामले में किसी के हस्तक्षेप और प्रवाह को अनावश्यक ही नहीं, अनुपयोगी भी समझते थे।
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