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२७४ | पूज्य प्रवर्तक श्री अम्बालाल जी महाराज-अभिनन्दन ग्रन्थ
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महावीर का तात्त्विक प्रवचन सुनकर कालोदायी का मन समाहित हो गया।
यह पंचास्तिकाय का वर्गीकरण मौलिक है । भारतीय दर्शनों के तात्त्विक वर्गीकरण को सामने रखकर उनका तुलनात्मक अध्ययन करने वाला यह कहने का साहस नहीं करेगा कि यह वर्गीकरण दूसरों से ऋण-प्राप्त है। कुछ विद्वान् स्वल्प अध्ययन के आधार पर विचित्र-सी धारणाएँ बना लेते हैं और उन्हें आगे बढ़ाते चले जाते हैं । यह बहुत ही गम्भीर चिन्तन का विषय है कि विद्वद् जगत् में ऐसा हो रहा है।
कहीं न कहीं कोई आवरण अवश्य है। आवरण के रहते सचाई प्रगट नहीं होती। मुझे एक घटना याद आ रही है । एक राजकुमारी को संगीत की शिक्षा देनी थी। वीणा-वादन और संगीत के लिए राजकुमार उदयन का नाम सूर्य की भांति चमक रहा था । राजा ने कूट-प्रयोग से उदयन को उपलब्ध कर लिया। राजा राजकुमारी को संगीत सिखाना चाहता था और दोनों को सम्पर्क से बचाना भी चाहता था। इसलिए दोनों के बीच में यवनिका बांध . दी। दोनों के मनों में भी यवनिका बाँधने की चेष्टा की। उदयन से कहा गया--राजकुमारी अंधी है। वह तुम्हारे सामने बैठने में सकुचाती है । अतः वह यवनिका के भीतर बैठेगी। राजकुमारी से कहा गया-उदयन कोढ़ी है । वह तुम्हारे सामने बैठने में सकुचाता है । अतः वह यवनिका के बाहर बैठेगा । शिक्षा का क्रम चालू हुआ और कई दिनों तक चलता रहा । एक दिन उदयन संगीत का अभ्यास करा रहा था। राजकुमारी बार-बार स्खलित हो रही थी। उदयन ने कई बार टोका, फिर भी राजकुमारी उसके स्वरों को पकड़ नहीं सकी। उदयन कुछ क्रुद्ध हो गया। उसने आवेश में कहा-जरा सँभल कर चलो। कितनी बार बता दिया, फिर भी ध्यान नहीं देती हो । आखिर अन्धी जो हो। राजकुमारी के मन पर चोट लगी। वह बौखला उठी। उसने भी आवेश में कहा-कोढ़ी ! जरा संभलकर बोलो ! उदयन ने सोचा, कोढ़ी कौन है ? मैं तो कोढ़ी नही हूँ। फिर राजकुमारी ने कोढ़ी कैसे कहा ? राजकुमारी ने भी इसी प्रकार सोचा-मैं तो अन्धी नहीं हूँ। फिर उदयन ने अन्धी कैसे कहा ? सचाई को जानने के लिए दोनों तड़प उठे। यवनिका को हटाकर देखा-कोई अन्धी नहीं है और कोई कोढ़ी नहीं है । बीच का आवरण यह धारणा बनाये हुए था कि यवनिका के इस पार अन्धापन है और उस पार कोड़। आवरण हटा और दोनों बातें हट गई। मुझे लगता है जैनदर्शन की मौलिकता को समझने में भी कोई आवरण बीच में आ रहा है । अब उसे हटाना होगा।
परमाणुवाद का विकास वैशेषिकदर्शन से हुआ है, फिर जैनदर्शन ने उसे अपनाया है। चेतन और अचेतन--- इस द्वैत का प्रतिपादन सांख्यदर्शन ने किया है, फिर जैनदर्शन ने उसे अपनाया है। यह सब ऐसे प्रस्तुत किया जा रहा है कि मानो जैनदर्शन का अपना कोई मौलिक रूप है ही नहीं। वह सारा का सारा ऋण लेकर अपना काम चला रहा है। सत्य यह है कि परमाणु और पुद्गल के बारे में जितना गम्भीर चिन्तन जैन आचार्यों ने किया है, उतना किसी भी दर्शन के आचार्यों ने नहीं किया। सांख्यदर्शन की प्रकृति और उसका विस्तार एक पुद्गलास्तिकाय की परिधि में आ जाता है। धर्मास्तिकाय और अधर्मास्तिकाय का अस्तित्व उससे सर्वथा स्वतन्त्र है । जैनदर्शन की प्राचीनता की अस्वीकृति, उसके आधारभूत आगम-सूत्रों के अध्ययन की परम्परा के अभाव और जैन विद्वानों की उपेक्षावृत्ति ने ऐसी स्थिति का निर्माण किया है कि जैनदर्शन का देय उसी के लिए ऋण के रूप में समझा जा रहा है।
भगवान महावीर ने वस्तु-मीमांसा और मूल्य-मीमांसा-दोनों दृष्टियों से तत्त्व का वर्गीकरण किया । वस्तुमीमांसा की दृष्टि से उन्होंने पंचास्तिकाय का प्रतिपादन किया और मूल्य-मीमांसा की दृष्टि से उन्होंने नौ तत्त्वों का निरूपण किया।
चार्वाक का तात्त्विक वर्गीकरण केवल वस्तु-मीमांसा की दृष्टि से है। उसके अनुसार पृथ्वी, जल, अग्नि और वायु-ये चार तत्त्व हैं। उनसे निर्मित यह जगत् भौतिक और दृश्य है । अदृश्य सत्ता का कोई अस्तित्व नहीं है।
न्यायदर्शन के प्रणेता महर्षि गौतम का तात्त्विक वर्गीकरण एक प्रकार से प्रमाण-मीमांसा है । वैशेषिकदर्शन का तात्त्विक वर्गीकरण नैयायिकदर्शन की अपेक्षा वास्तविक है। उसमें गुण, कर्म, सामान्य और विशेष की व्यवस्थित व्याख्या मिलती है। जैनदर्शन की दृष्टि से इनकी स्वतन्त्र सत्ता नहीं है। ये द्रव्य के ही धर्म हैं। सांख्यदर्शन का तात्त्विक वर्गीकरण सृष्टिक्रम का प्रतिपादन करता है। इनके पच्चीस तत्त्वों में मौलिक तत्त्व दो हैं-प्रकृति और पुरुष । शेष तेईस तत्त्व प्रकृति के विकार हैं । उनका स्वतंत्र अस्तित्व नहीं है। पंचास्तिकाय के वर्गीकरण में पांचों
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