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२६४ | पूज्य प्रवर्तक श्री अम्बालालजी महाराज-अभिनन्दन ग्रन्थ
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जैनदर्शन
वैदिकदर्शन व बौद्धदर्शन में जिस प्रकार मोक्ष और निर्वाण के सम्बन्ध में विभिन्न मत हैं; वैसे जैनदर्शन में किसी भी सम्प्रदाय में मतभेद नहीं है। मेरी दृष्टि से इसका मूल कारण यह है कि वेदों के मोक्ष के सम्बन्ध में कोई चर्चा नहीं की गई और वैदिक आचार्यों ने उसे आधार बनाकर और अपनी कमनीय कल्पना की तूलिका से उसके स्वरूप का चित्रण किया है।
बौद्ध साहित्य का पर्यवेक्षण करने से यह स्पष्ट परिज्ञात होता है कि तथागत बुद्ध ने अपने आपको सर्वज्ञ नहीं कहा है। उन्होंने अपने शिष्यों को यह आदेश दिया कि तुम मेरे कथन को भी परीक्षण-प्रस्तर पर कस कर देखो कि वस्तुतः वह सत्य तथ्ययुक्त है या नहीं, किन्तु भगवान महावीर ने अपने आपको सर्वज्ञ बताकर और सर्वज्ञ के वचनों पर पूर्ण विश्वास रखने की प्रबल प्रेरणा प्रदान की। जिसके कारण जैनधर्म में श्रद्धा की प्रमुखता रही । सर्वज्ञ के वचन के विपरीत तर्क करना बिलकुल ही अनुचित माना गया, जिससे तत्त्वों के सम्बन्ध में या मोक्ष के सम्बन्ध में किसी भी प्रकार का मतभेद नहीं हो सका।
जनदर्शन परिणामी नित्यता के सिद्धान्त को मान्य करता है किन्तु प्रस्तुत सिद्धान्त सांख्य-योग के समान केवल जड़ अर्थात् अचेतन तक ही समर्पित नहीं है। उसका यह बज्र आघोष है कि चाहे जड़ हो या चेतन सभी परिणामी नित्य हैं। यहाँ तक कि यह परिणामी नित्यता द्रव्य के अतिरिक्त उसके साथ होने वाली शक्तियों (गुण पर्यायों) को भी व्याप्त करता है।
जैनदर्शन आत्म द्रव्य को न्याय-वैशेषिक के समान व्यापक नहीं मानता और रामानुज के समान आत्मा को अणु भी नहीं मानता किन्तु वह आत्म-द्रव्य को मध्यम परिणामी मानता है। उसमें संकोच और विस्तार दोनों गुण रहे हुए हैं, जो जीव एक विराट्काय हाथी के शरीर में रहता है वही जीव एक नन्ही-सी चींटी में भी रहता है । द्रव्य रूप से जीव शाश्वत है किन्तु परिणाम की दृष्टि से उसकी अवस्थाओं में परिवर्तन होता है । परिणामी सिद्धान्त को मानने के कारण जनदर्शन ने स्पष्ट रूप से यह माना है कि जिस शरीर से जीव मुक्त होता है, उस शरीर का जितना आकार होता है उससे तृतीय भाग न्यून विस्तार सभी मुक्त जीवों का होता है ।२६ ।
स्मरण रखना चाहिए कि आत्मा में जो संकोच और विस्तार होता है वह कर्मजन्य शरीर के कारण से है। मुक्तात्माओं में शरीराभाव होने से उसमें संकोच और विस्तार नहीं हो सकता। मुक्तात्माओं में जो आकृति की कल्पना की गई है वह अन्तिम शरीर के आधार से की गई है। मुक्त जीव में रूपादि का अभाव है तथापि आकाश प्रदेशों में जो आत्म प्रदेश ठहरे हुए हैं उस अपेक्षा से आकार कहा है।
प्रस्तुत जैनदर्शन की मान्यता सम्पूर्ण भारतीय दर्शन की मान्यता से पृथक् है। यह जैनदर्शन की अपनी मौलिक देन है । इसका मूल कारण यह है कि कितने ही दर्शन आत्मा को व्यापक मानते हैं तो कितने ही दर्शन आत्मा को अणु मानते हैं । इस कारण मोक्ष में आत्मा का परिणाम क्या है उसे वे स्पष्ट नहीं कर सके हैं, किन्तु जनदर्शन की मध्यम परिणाम की मान्यता होने से मुक्ति दशा में आत्मा के परिणाम के सम्बन्ध में एक निश्चित मान्यता है।
जनदर्शन के अनुसार मुक्त आत्म द्रव्य में सहभू-चेतना, आनन्द आदि शक्तियाँ अनावृत्त होकर पूर्ण विशुद्ध रूप से ज्ञान, सुख आदि रूप में प्रतिपल प्रतिक्षण परिणमन करती रहती हैं, वह मात्र कूटस्थनित्य नहीं अपितु शक्ति रूप से नित्य होने पर प्रति समय होने वाले नित्य नूतन सदृश परिणाम प्रवाह के कारण परिणामी है। यह जैनदर्शन का मोक्षकालीन आत्मस्वरूप अन्य दर्शनों से अलग-अलग है। उसमें अन्य दर्शनों के साथ समानता भी है। द्रव्य रूप से स्थिर रहने के सम्बन्ध में न्याय-वैशेषिक दर्शनों के साथ उसका मेल बैठता है और सांख्य-योग एवं अद्वैत दर्शनों के साथ सहभू गुण की अभिव्यक्ति या प्रकाश के सम्बन्ध में समानता है। यद्यपि योगाचार या विज्ञानवादी बौद्ध शाखा के ग्रन्थों से यह बहुत स्पष्ट रूप से फलित नहीं होता तथापि यह ज्ञात होता है कि वह मूल में क्षणिकवादी होने से मुक्ति काल में आलय विज्ञान को विशुद्ध मानकर उसका निरन्तर क्षण प्रवाह माने तभी बौद्धदर्शन की मोक्षकालीन मान्यता संगत बैठ सकती है। यदि वे इस प्रकार मानते हैं तो जैनदर्शन की मान्यता के अत्यधिक सन्निकट हैं।
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