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________________ २५२ | पूज्य प्रवर्तक श्री अम्बालालजी महाराज-अभिनन्दन ग्रन्थ ०००००००००००० ०००००००००००० एमा HTRA PARATION (१२) क्षीणकषाय वीतराग छमस्थ गुणस्थान-जिन्होंने मोहनीय कर्मों का सर्वथा क्षय कर दिया परन्तु शेष घाती कर्मों का छद्म (आवरण) विद्यमान है वे क्षीणकषाय वीतराग (माया लोभ का अभाव) कहाते हैं । इसकी स्थिति अन्तर्मुहूर्त प्रमाण है । इसमें वर्तमान जीव क्षपक श्रेणि वाले ही होते हैं । इस गुणस्थान के द्विचरम समय में निद्रा, निद्रानिद्रा का क्षय व अन्तिम समय में ज्ञानावरण, दर्शनावरण, अंतराय प्रकृतियों का क्षय हो जाता है। १२वें गुणस्थानवर्ती निर्ग्रन्थ का चित्त स्फटिकमणिवत् निर्मल हो जाता है, क्योंकि मोहनीय कर्मों का सर्वथा अभाव है। (१३) सयोगिकेवली गुणस्थान —जिन्होंने ज्ञानावरण, दर्शनावरण, मोहनीय व अन्तराय इन चार घातिकर्मों का क्षय कर केवलज्ञान प्राप्त किया है। जिस केवलज्ञान रूपी सूर्य से किरण-कलाप से अज्ञान अन्धकार सर्वथा नष्ट हो गया है जिनको नव केवल लब्धियाँ (क्षायिक समकित, अनन्तज्ञान, अनन्तदर्शन, अनन्तचारित्र, दान, लाभ, भोग, उपभोग, वीर्य उदय भाग) प्रकट होने से परमात्मा का व्यपदेश प्राप्त हो गया है-इन्द्रिय व आलोकादि की अपेक्षा न . होने से केवली व योग युक्त होने से योगी हैं उनके स्वरूप विशेष को सयोगिकेवली गुणस्थान कहा । जिस समय कोई मनपर्यव ज्ञानी वा अनुत्तर विमान वासी देव मन से ही भगवान से प्रश्न करते हैं उस वक्त भगवान मन का प्रयोग करते हैं । ५० मन से उत्तर देने का आशय मनोवर्गणा के पर्याय-आकार को देखकर प्रश्नकर्ता अनुमान से उत्तर जान लेता है । केवली भगवान उपदेश देने में वचनयोग का प्रयोग व हलन-चलन में काययोग का प्रयोग करते हैं ।५० (१४) अयोगिकेवली गुणस्थान५१–केवली सयोगि अवस्था में जघन्य अन्तर्मुहूर्त, उत्कृष्ट कुछ कम करोड़ पूर्व तक रहते हैं। इसके बाद जिन केवली भगवान के वेदनीय नाम व गोत्र तीनों कर्मों की स्थिति व पुद्गल (परमाणु) आयु कर्म की स्थिति व परमाणुओं की अपेक्षा अधिक होते हैं वे समुद्धात ५२ के द्वारा वेदनीय व नाम गोत्र की स्थिति व परमाणु आयु कर्म की स्थिति व परमाणुओं के बराबर कर लेते हैं। जिनके इन तीनों कर्मों की स्थिति, परमाणु आयु की स्थिति व परमाणुओं से अधिक न हो वे समुद्घात नहीं करते। अपने सयोगि अवस्था के अन्त में ऐसे ध्यान के लिये योगों का निरोध करते हैं जो परम निर्जरा का कारणभूत व लेश्या रहित अत्यन्त स्थिरता रूप होते हैं। योग निरोध का क्रम-पहले बादर काययोग से बादर मनोयोग और बादर वचनयोग को रोकते हैं-इसी सूक्ष्म काययोग से क्रमशः सूक्ष्म मनोयोग व सूक्ष्म वचनयोग को रोकते हैं । फिर सूक्ष्म क्रियाऽनिवृत्ति ध्यान (शुक्ल ध्यान का तीसरा भेद) के बल से सूक्ष्म काययोग भी रोक देते हैं-व अयोगि बन जाते हैं । इसी ध्यान की सहायता से अपने शरीर के अन्तर्गत पोले भाग मुख-उदर आदि को आत्म प्रदेशों से पूर्ण कर देते हैं-प्रदेश संकुचित हो 3 भाग रह जाते हैं । फिर वे अयोगि केवली समुछिन्न क्रियाप्रतिपाति (शुक्लध्यान का चौथा भेद) ध्यान से मध्यमगति से अ इ उ ऋ लु पाँच अक्षर उच्चारण करें जितने काल तक शैलेशीकरण (पर्वत समान अडोल) वेदनीय, नाम, गोत्र को गुणश्रेणि से आयु कर्म को यथास्थितिश्रेणि से निर्जरा कर अन्तिम समय में इन अघाति कर्मों को सर्वथा क्षय कर एक समय में ऋजुगति से मुक्ति में चले जाते हैं । ५३ तुलनात्मक पर्यवेक्षण-जैनशास्त्र में मिथ्यादृष्टि या बाह्यात्मा (१ से ३ गुणस्थान) नाम से अज्ञानी जीव का लक्षण कहा । जो अनात्म जड़ में आत्म बुद्धि रखता है-योगवाशिष्ठ व पातंजल में अज्ञानी जीव का वही लक्षण कहा ।५४ अज्ञानी का संसार पर्यटन दुःख फल योगवाशिष्ठ में भी कहा । ५५ जनशास्त्र में मोह को संसार का कारण कहा-योगवाशिष्ठ में दृश्य के प्रति अभिमान अध्यास को कहा । जैनशास्त्र में ग्रन्थि-भेद कहा वैसे ही योगवाशिष्ठ में कहा ।५६ वैदिक ग्रन्थों में ब्रह्म माया के संसर्ग से जीवत्व धारण करता है-मन के संकल्प से सृष्टि रचता है । जैन मतानुसार ऐसे समझा सकते हैं-आत्मा का अव्यवहार राशि से व्यवहार राशि में आना ब्रह्म का जीवत्व धारण करना है। वैदिक ग्रन्थों में विद्या से अविद्या व कल्पना का नाश करना कहा५७-जैनशास्त्र में मतिज्ञानादि क्षायोपशमिक ज्ञान व क्षायिकभाव से मिथ्याज्ञान का नाश समान है। जैनदर्शन में सम्यक्त्व से उत्थान क्रम कहा वैसे ही योग के आठ अंगों से प्रत्याहार से उत्थान होता है।५८ (देखो लेखक का ध्यान लेख श्रमणो०) योगवाशिष्ठ में तत्त्वज्ञ, समदृष्टि पूर्णाशय मुक्त पुरुष५६ के वर्णन से जैन दर्शन की चौथे गुणस्थान से १३ तक जानो । योगवाशिष्ठ में ७ अज्ञान की, ७ ज्ञान की भूमिकाएं कहीं ° वैसे ही जैनदर्शन में १४ गुणस्थान वर्णित हैं (१-३) अज्ञानी, ४-१२ अंतर् 0000 PACROWAR e Education Interational For Private Personal use only www.jainelibrariam
SR No.012038
Book TitleAmbalalji Maharaj Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaubhagyamuni
PublisherAmbalalji Maharaj Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1976
Total Pages678
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size26 MB
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