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कर्म-सिद्धान्त : मनन और मीमांसा | २३७
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तो भगवान महावीर का आज यश फैल रहा है वह नहीं होना चाहिए क्योंकि उनके किसी शुभ कर्म का उदय भी नहीं है अत: किसी पदार्थ की प्राप्ति कर्मजनित हो सकती है। अभाव कर्मजनित परिणाम नहीं है। पदार्थ की प्राप्ति के लिए भी प्राचीन साहित्य में दो मान्यताएँ उपलब्ध रही हैं। एक विचारधारा में समग्र बाह्य पदार्थ की प्राप्ति कर्मजनित ही है। दूसरी विचारधारा में बाह्य सामग्री केवल सुख-दुःखादि के संवेदन में निमित्त मात्र बनती है। तर्क की कसौटी पर दोनों का सामञ्जस्य ही उपयुक्त है।
आत्मा जिन देहादि पदार्थों का सृजन करती है वह कर्मजनित परिणाम हैं। शेष भौतिक उपलब्धि कर्म वेदन में निमित्त है । शेष को निमित्त न मानकर यदि कर्मजनित परिणाम ही माना जाये तो अनेक स्थलों पर बाधा उपस्थित होती है। क्योंकि जो निर्जीव पदार्थ हैं उनमें भी सुन्दर वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श देखे जाते हैं । ये अचेतन बादल कितने सुन्दर आकारों को धारण करते हैं किन्तु इनका यह सौन्दर्य किसी कर्म का परिणाम नहीं होता । अतः मानना पड़ता है कि बाह्य सामग्री कर्मजनित परिणाम भी है और निमित्त भी । आत्मा का स्वातन्त्र्य और पारतन्त्रय
साधारणतया कहा जाता है आत्मा कर्तृत्व काल में स्वतन्त्र है और भोक्तृत्व काल में परतन्त्र । उदाहरण की भाषा में विष को खा लेना हाथ की बात है। मत्यु से बचना हाथ में नहीं है। यह स्थूल उदाहरण है क्योंकि विष को भी विष से निविष किया जाता है । मृत्यु से बचा जा सकता है । आत्मा का भी कर्म के कर्तृत्व और भोक्तृत्व दोनों अवसरों पर स्वातन्त्र्य और पारतन्त्र्य दोनों फलित होते हैं।
सहजतः आत्मा कर्म करने में स्वतन्त्र है । वह चाहे जैसे माग्य का निर्माण कर सकती है । कर्मों पर विजय प्राप्त कर पूर्ण उज्ज्वल बन सकती है। पर कभी-कभी पूर्व जनित कर्म और बाह्य निमित्त को पाकर ऐसी परतन्त्र बन जाती है कि वह चाहे जैसा कभी भी नहीं कर सकती। जैसे कोई आत्मा सन्मार्ग पर बढ़ना चाहती है, पर चल नहीं सकती । पैर फिसल जाते हैं । यह है आत्मा का कर्तृत्व काल में स्वातन्त्र्य और पारतन्त्र्य ।
कर्म करने के बाद आत्मा कर्माधीन ही बन जाती है ऐसा भी नहीं है। उसमें भी आत्मा का स्वातन्त्र्य सुरक्षित है । वह चाहे तो अशुभ को शुभ में परिवर्तित कर सकती है। स्थिति और रस का ह्रास कर सकती है । विपाक का अनुदय कर सकती है। यही तो कर्मों की 'उद्वर्तन' 'अपवर्तन' और 'संक्रमण अवस्थाएँ हैं । इनमें आत्मा की स्वतन्त्रता बोल रही है । परतंत्र वह इस दृष्टि से है कि-जिन कर्मों का उसने सर्जन किया है उन्हें बिना भोगे मुक्ति नहीं होती। भले लम्बे काल तक भोगे जाने वाले कर्म थोड़े समय में भोग लिए जाएँ, विपाकोदय न हो, पर प्रदेशों में तो सबको भोगना ही पड़ता है। कर्म क्षय की प्रक्रिया
कर्म क्षय को प्रक्रिया जैन दर्शन में गहराई लिए हुए है। स्थिति का परिपाक होने पर कर्म उदय में आते हैं और झड़ जाते हैं यह कर्मों का सहज क्षय है । कर्मों को विशेष रूप से क्षय करने के लिए विशेष प्रयत्न करने पड़ते हैं । वह प्रयत्न स्वाध्याय, ध्यान, तप आदि मार्ग से होता है । इन मार्गों से सप्तम गुणस्थान तक कर्म क्षय विशेष रूप से होते हैं । अष्टम गुणस्थान से आगे कर्म क्षय की प्रक्रिया बदल जाती है । वह इस प्रकार है-१. अपूर्व स्थिति घात, २. अपूर्व रस घात, ३. गुणश्रेणी, ४. गुण-संक्रमण ५. अपूर्व स्थिति बंध।
कर्मग्रन्थ में इन पांचों का सामान्य विवेचन उपलब्ध है । इसके अनुसार सर्वप्रथम आत्मा अपवर्तन करण के माध्यम से कर्मों को अन्तर्मुहूर्त में स्थापित कर गुण श्रेणी का निर्माण करती है। स्थापना का क्रम यह है-उदयकालीन समय को लेकर अन्तर्मुहूर्त पर्यन्त एक उदयात्मक समय को छोड़कर शेष जितने समय हैं उनमें कर्म दलिकों को स्थापित किया जाता है । प्रथम समय में स्थापित कर्म दलिक सबसे कम होते हैं। दूसरे समय में स्थापित कर्म दलिक उससे
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१. भग०११४।१५५; उत्त० ४।३ २. कर्मग्रन्थ-द्वितीय भाग, पृ० १७
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