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जैनों की धर्म-भक्ति नहीं, किन्तु देश-भक्ति भी । । इतिहास प्रसिद्ध है । देश एवं समाज की सेवा के लिए स्वयं को समर्पित करने वाले भीलों के बेताज । बादशाह एक जैन गृहस्थ का परिचय पढ़िए।
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0 श्री शोभालाल गुप्त अध्यक्ष, राजस्थान लोक सेवा संघ [भू. पू. संपादक-दैनिक हिन्दुस्तान]
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मेवाड़ का एक जैन भील नेता श्री मोतीलाल तेजावत
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जैन समाज ने अनेक देशभक्तों को जन्म दिया, जिन्होंने देश के राजनीतिक और सामाजिक जीवन पर अपनी अमिट छाप छोड़ी है। देश के स्वतन्त्रता-संग्राम में उनके योग को कभी भुलाया नहीं जा सकता। महात्मा गांधी ने हमारे स्वतन्त्रता संग्राम को अहिंसक मोड़ दिया और उन्होंने अहिंसा की शक्ति का विराट् प्रदर्शन किया । जैन समाज को अहिंसा जन्म-घुट्टी के रूप में प्राप्त हुई और उसकी प्रकृति का मूलभूत अंग बन चुकी है। अत: जैन देशभक्तों के लिए अहिंसा का अनुसरण सहज साध्य था। गांधीजी कहा करते थे कि अहिंसा कायरों का नहीं वीरों का शस्त्र है और कोई निर्भय व्यक्ति ही अहिंसा के पथ पर चलने का साहस कर सकता है। अहिंसा का अनुयायी अन्याय का प्रतिकार करते हुए भी अन्यायकर्ता के प्रति अपने हृदय में द्वेष की भावना नहीं रखता और स्वयं कष्ट सहकर अन्यायकर्ता के हृदय-परिवर्तन की चेष्टा करता है। शान्ति और संयम, त्याग और बलिदान जैसे मानवी गुणों का जैन-परम्परा में खूब विकास हुआ और देश के स्वतंत्रता-संग्राम में गांधीजी ने इन गुणों पर सर्वाधिक बल दिया। कोई आश्चर्य नहीं कि जैन समाज गांधी जी द्वारा संचालित अहिंसक संग्राम की और आकर्षित हुआ और उसने देश की स्वतन्त्रता के लक्ष्य की पूर्ति में अपनी योग्य भूमिका का निर्वाह किया।
राजस्थान के जैन देशभक्तों में मेवाड़ के स्वर्गीय मोतीलाल जी तेजावत का नाम विशेष आदर के साथ लेना होगा। श्री तेजावत ने जीवन भर अन्याय, अत्याचार और शोषण के विरुद्ध संघर्ष किया और सच्चाई की खातिर वह कोई भी कुर्बानी देने में पीछे नहीं रहे। उन्होंने आज की तथाकथित उच्च शिक्षा प्राप्त नहीं थी, किन्तु उन्होंने जंगलों और पहाड़ियों में रहने वाले लाखों आदिवासियों का प्रेम और विश्वास प्राप्त किया और एक प्रकार से उनके मसीहा ही बन गये। भील उन्हें अपने प्राणों से भी अधिक प्यार करते थे और उनके इशारे पर मर मिटने को प्रस्तुत रहते थे।
भूतपूर्व मेवाड़ रियासत के कोलियारी नामक एक अज्ञात गांव में ओसवाल कुल में श्री तेजावत का जन्म हुआ। उनकी शिक्षा दीक्षा गांव में ही हुई और बड़े होने पर उन्होंने समीप के झाड़ोल ठिकाने की नौकरी के साथ अपने जीवन की शुरूआत की। किन्तु उन्होंने शीघ्र ही अनुभव कर लिया कि वह सामन्तवाद के पुर्जे बन कर नहीं रह सकते। उन्हें झाड़ोल के जागीरदार के साथ मेवाड़ के महाराणा के शिकार-दौरों में जाने का मौका मिला और उन्होंने बेगार प्रथा के राक्षसी स्वरूप का प्रत्यक्ष दर्शन किया। जहाँ भी महाराणा पड़ाव डालते, महाजनों को रसद पहुँचानी पड़ती और इन व्यापारियों को उनकी सामग्री का एक चौथाई मूल्य भी नहीं दिया जाता। ग्रामीणों को हर प्रकार के काम बिना किसी मजदूरी के मुफ्त करने पड़ते । आना-कानी करने पर जूतों से पिटाई होती और खोड़े
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