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२०६ | पूज्य प्रवर्तक श्री अम्बालालजी महाराज-अभिनन्दन ग्रन्थ
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महाकवि आशाधर
आशाधर माण्डलगढ़ (मेवाड़) के मूल निवासी थे। किन्तु मेवाड़ पर शहाबुद्दीन गोरी के आक्रमणों के उपरांत वे धारा नगरी (मालवा) में जा बसे थे। उसी के समीप नलकच्छपुर में उन्होंने अपनी साहित्य-साधना की थी। ये वि० की तेरहवीं शताब्दी के विद्वान थे । संस्कृत में लिखी गयी इनकी लगभग २० रचनाओं के उल्लेख प्राप्त हुए हैं। किन्तु उपलब्ध कम ही हुई हैं । आध्यात्मरहस्य, सागारधर्मामृत, अनागारधर्मामृत, जिनयज्ञकल्प, त्रिषष्टिस्मृतिशास्त्र आदि इनकी प्रसिद्ध संस्कृत रचनाएँ हैं । पं० आशाधर का अध्ययन बड़ा ही विशाल था। वे जैनाचार, अध्यात्म, काव्य, कोष, आयुर्वेद-शास्त्र आदि कई विषयों के प्रकाण्ड पण्डित थे। भट्टारक कवि
मेवाड़ प्रदेश में दिगम्बर परम्परा के अनेक भट्टारकों का विचरण हुआ है । चित्तौड़, उदयपुर, ऋषभदेव आदि स्थानों पर इन भट्टारकों ने ग्रन्थागार भी स्थापित किये हैं । ये भट्टारक धर्म-प्रचारक के साथ-साथ अच्छे कवि भी होते थे । मेवाड़ के प्रभावशाली भट्टारक कवियों में भ० सकलकीति, भ० भुवनकीर्ति, म० ब्रह्मजिनदास, भ० शुभचन्द्र एवं प्रभाचन्द्र आदि प्रमुख हैं । भट्टारक सकलकीति, ने २६ एवं ब्रह्म जिनदास ने १२ रचनाएँ संस्कृत में लिखी हैं । इनके ये ग्रन्थ काव्यात्मक दृष्टि से भी महत्त्वपूर्ण हैं ।
आचार्य शुभचन्द्र संस्कृत के प्रकाण्ड विद्वान् थे । वि० सं० १५३०-४० के बीच इनका जन्म हुआ था। उदयपुर, सागवाड़ा, डूंगरपुर, जयपुर आदि स्थानों पर इन्होंने मूर्ति प्रतिष्ठा करायी थी । इन्होंने २४ रचनाएँ संस्कृत में लिखी हैं। इनमें तीर्थंकरों का चरित, पाण्डवकथा, तथा जैन व्रत-विधानों का सुन्दर वर्णन हुआ है। जिन चन्द्र के शिष्य भट्रारक प्रमाचन्द्र का भी मेवाड़ में अच्छा प्रभाव रहा है। इन्होंने वि० सं० १५७२ में दिल्ली से अपनी गद्दी को चित्तौड़ में स्थानान्तरित कर लिया था। इन्होंने प्राचीन साहित्य के उद्धार में महत्त्वपूर्ण योगदान किया है। १५वीं शताब्दी के कवि
वि० सं० १५वीं शताब्दी में मेवाड़ में अनेक जैनाचार्य हुए हैं। उनकी संस्कृत रचनाओं ने यहाँ के साहित्यिक वातावरण को प्रभावशाली बनाया है। सोमसुन्दर तपागच्छ के प्रमुख कवि थे। वि० सं०१४५० में राणकपुर में इनको वाचकपद प्राप्त हुआ था। बाद में ये देलवाड़ा आ गये थे ।५ इनकी संस्कृत रचनाओं में कल्याणकस्तव, रत्नकोश, उपदेशबालावबोध, भाष्यत्रय अवचूरि आदि प्रमुख हैं।
सोमसुन्दर के शिष्य मुनिसुन्दर भी संस्कृत के विद्वान थे। इन्होंने 'शान्तिकर स्तोत्र' देलवाड़ा में लिखा था। सोमदेववाचक सोमसुन्दर के दूसरे प्रभावशाली शिष्य थे। महाराणा कुम्मा ने इन्हें कविराज की उपाधि प्रदान की थी। देलवाड़ा इस युग में संस्कृत साहित्य का प्रधान केन्द्र था। वि०सं० १५०१ में माणिक्य सुन्दरगणि ने 'भवभावनाबालावबोध' नामक ग्रन्थ संस्कृत में लिखा था । इस युग के प्रतिष्ठित कवि प्रतिष्ठा सोम हुए हैं। ये महाराणा कुम्भा के समकालीन थे। इन्होंने 'सोमसोभाग्यकाव्य' तथा 'गुरुगुणरत्नाकर' जैसे महत्त्वपूर्ण ग्रन्थों की रचना की है। इन ग्रन्थों में तत्कालीन मेवाड़ के सामाजिक, धार्मिक और राजनैतिक जीवन की प्रामाणिक सामग्री
१. शास्त्री, ती० म० और उनकी आ० प०, मा० ४, पृ० ४१ २. जैन, बिहारीलाल, "भ० सकलकीर्ति-एक अध्ययन' (थीसिस) ३. शास्त्री, वही, भा० ३, पृ० ३६५ ४. जोहरापुरकर, 'भट्टारक सम्प्रदाय' लेखांक २६५ ५. 'सोम सौभाग्यकाव्य' पृ० ७५, श्लोक १४ ६. शोधपत्रिका, भा० ६, अंक २-३, पृ० ५५ ७. सोमानी, रामबल्लभ, 'महाराणा कुम्भा' पृ० २१२
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