SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 232
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १४ मेवाड़-सम्प्रदाय की साध्वी परम्परा 000000000000 ०००००००००००० महासती श्री नगीनाजी मेवाड़ के साध्वी-समाज के इतिहास को समुज्ज्वल करने वाली प्रधान महासतियों में 'नगीनाजी' का स्थान महत्त्वपूर्ण है। ये नन्दूजी महासती जी की सबसे बड़ी शिष्या थीं । नन्दूजी अपने युग की महत्त्वपूर्ण साध्वीजी रही होंगी। तभी उनके नाम का सिंघाड़ा कहलाता है । खेद की बात है कि हमें नन्दूजी के विषय में खोज करने पर भी कोई जानकारी नहीं मिल सकी। नन्दूजी के नगीनाजी के अलावा कुन्दनजी और गंगाजी इस तरह दो शिष्याएँ और थीं। किन्तु उनका परिचय भी अज्ञात है। नगीनाजी का जो कुछ परिचय मिल पाया, वह इस प्रकार है इतिहास रखने की पद्धति का नितान्त अभाव होने के कारण सतियों के विषय में सामयिक जानकारी मिलना तो नितान्त कठिन है। नगीनाजी का जन्म कब हुआ, यह सुविदित नहीं है । किन्तु उनकी एक शिष्या देवकुंवरजी का अवश्य पता चलता है, जिन्होंने वि० सं० १९३३ में तपस्या की थी। महासती नगीनाजी ने बीस वर्ष की आयु में दीक्षा ली थी। उनके दीक्षा लेने के १०-१२ वर्ष बाद ही देवकुंवरजी उनकी शिष्या हुई होंगी। इस आधार पर महासतीजी का जन्म वि० सं० १९०० या १६०२ के आस-पास माना जा सकता है। इनका जन्मस्थान पोटलां था। भोपराजजी पामेचा इनके पिता थे। इनकी माता का नाम गुलाबबाई था। तेरह वर्ष की उम्र में कपासन निवासी मोजीरामजी मारु के छोटे पुत्र पृथ्वीराज जी से इनका ब्याह रच दिया गया। विवाहित जीवन केवल सात वर्ष रहा । पति का देहावसान हो गया। परम विदुषी महासती जी श्री नन्दूजी के सम्पर्क से नगीनाजी को वैराग्य रस छाया। उन्होंने दीक्षा की बात चलाई तो एकमात्र पुत्र धनराज जी तथा उनके काका लोगों ने न केवल कड़ा विरोध किया, प्रत्युत कई कठिन परीषह भी दिये। नगीनाजी को जब आज्ञा मिलना असंभव लगा तो उन्होंने अपना जीवन बदल दिया । गृहस्थावस्था में ही केशों का हाथों से लुंचन करना तथा भिक्षा से आहार लेना प्रारम्भ कर दिया। नगीनाजी के इन प्रयत्नों से पारिवारिक व्यक्ति बहुत अधिक सख्त हो गए। उन्होंने नगीनाजी को लोहे की जंजीरों से बांधकर एक कमरे में बन्द कर दिया और ऊपर बड़ा ताला लगा दिया । नगीनाजी भीतर धर्म ध्यान की आराधना में लगे थे । कहते हैं, जंजीरों के बन्धन तडातड़ टूट गये और द्वार का ताला भी टूट गया। अनायास ही ऐसा हो जाना, किसी बहुत बड़े चमत्कार से कम नहीं था। पूरा गाँव यह दृश्य देखकर दंग रह गया । धर्मप्रेमी सज्जनों ने पारिवारिक-जनों को समझाया कि आज्ञा नहीं देने से तुम्हारा भी कुछ अनिष्ट हो सकता है । अन्त में सभी सहमत हुए और देलवाड़ा में नगीनाजी की दीक्षा सम्पन्न हुई। श्री नगीनाजी का शास्त्रीय ज्ञान बढ़ा-चढ़ा था। इसका प्रमाण यह है कि आमेट में शुद्ध स्थानकवासी जैन धर्म की श्रद्धा से हटे चालीस परिवारों को पुनः श्रद्धा में स्थापित किया। ऐसा भी प्रमाण मिलता है कि सरदारगढ़ में, JUMIAS ना
SR No.012038
Book TitleAmbalalji Maharaj Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaubhagyamuni
PublisherAmbalalji Maharaj Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1976
Total Pages678
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size26 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy