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________________ १३६ | पूज्य प्रवर्तक श्री अम्बालाल जी महाराज-अभिनन्दन ग्रन्थ ०००००००००००० ०००००००००००० ..... RPAN SMADHAN ..... .. संस्थारक साधक जीवन की शिखर प्रक्रिया है । मृत्यु से पूर्व मृत्यु को सफल बनाने की एक आध्यात्मिक तैयारी है। संस्थारक में साधक सम्पूर्ण रूप से बाह्य भावों से अपने आप को हटाकर अपने आपको सम्पूर्ण आध्यात्मिकता में स्थापित करता है । वह जीवन और मृत्यु के आग्रहों से मुक्त विशुद्ध रूपेण अपने में पहुंच जाता है। स्वामीजी ऐसा साढ़े चार दिन कर पाये। स्वामीजी के जीवन के अन्तिम सत्र के ये १०८ घण्टे सचमुच सम्पूर्ण जीवन के हजारों घण्टों में सबसे अधिक बेहतर थे। सच पूछा जाए तो प्रत्येक सच्चा साधक जीवन भर ऐसी ही घड़ियों की प्रतीक्षा में रहा करता है । अन्तिम संयम की मंगल साधना को सिद्ध करने को ही मानो पूरे जीवन को साधता रहता है। समत्व के चरमोत्कर्ष की स्थिति में आई मौत केवल तन को छीन सकती है। साधक का महान् सत्व तो अपनी आत्मज्योत्स्ना से आलोकित सोल्लास गन्तव्य की ओर चल पड़ता है। .. श्री स्वामीजी स्वर्गवास से पूर्व नौ वर्ष उदयपुर में स्थानापन्न रहे । ये नौ वर्ष श्री नृसिंहदासजी महाराज, जिनकी दीक्षा १८५२ में सम्पन्न हुई, के तुरन्त बाद मान लें तो स्वामीजी के स्वर्गवास का समय १८६१ बैठता है, किन्तु यह भी अनुमान मात्र है । निश्चित समय का कहीं उल्लेख नहीं मिलने से इस विषय में निश्चयपूर्वक कुछ कहना बिलकुल सम्भव नहीं। स्वामीजी के शिष्य पाठक यह तो जान ही गये कि श्री रोडजी स्वामी कुछ समय एकाकी भी विचरे । कालान्तर में उनके जो शिष्य हुए उन में श्री नृसिंहदासजी महाराज प्रमुख थे। नृसिंहदासजी महाराज के बाद अन्य शिष्य भी हुए, ऐसा श्री मानजी स्वामी की ढाल से ज्ञात होता है।' ____ इसमें नृसिंहदासजी महाराज के 'गुरु भायों' का उल्लेख है । अतः रोड़जी स्वामी के कई शिष्य होना सिद्ध होता है । कितने शिष्य थे, यह स्पष्ट नहीं हो सका। स्वामीजी का तप स्वामीजी घोर तपस्वी थे। दीक्षा लेकर अन्तिम समय तक बेले-बेले तो पारणा किया ही। प्रतिमास दो-अठाई तथा वर्ष में दो मास खमण भी तपस्वीजी किया करते थे। इस बीच कई बार तेले और चोले भी कर लिया करते थे। तप स्वामीजी का सबसे बड़ा सम्बल था । वास्तव में तप से स्वामीजी विभूषित तो तप स्वामीजी जैसे महान को पाकर धन्य हो गया। स्वामीजी का विचरण-क्षेत्र तपस्विराज मेवाड़ से बाहर भी पधारे हों, ऐसा कोई उल्लेख नहीं। राज करेड़ा, आमेट, सनवाड़, नाथद्वारा, उदयपुर पधारने का स्पष्ट उल्लेख है । अत: मेवाड़ के अधिकांश क्षेत्रों को तपस्वीजी ने पावन किया । इसमें कोई सन्देह नहीं। उदयपुर को तपस्वीजी ने सर्वाधिक लाभ प्रदान किया । अन्तिम नौ वर्ष तपस्वीजी वहीं विराजे । उससे पहले भी कई बार पधारे । तभी अभिग्रह फले। कुछ स्पष्टताएँ बहुत वर्षों से श्री रोड़जी स्वामी के चातुर्मास की सूची में सैंतीस चौमासे गिनाते आये है। प्रेरक जीवनी आदि में भी वैसा ही उल्लेख किया गया । किन्तु पूज्य श्री मानजी स्वामी द्वारा रचित पूज्य श्री नृसिंहदासजी महाराज के गुण ATMANTILY EASE IMANTICL १. सेवा भक्ति कीदी घणी गुरु गुरुभायां री जोय । आतपना लीधी घणी कर लाम्बा करी दोय ।। २. बेले बेले स्वामी पारणा जी मास खमण दोय बार । तेला तो चोला सहेज है वे तो तपस्या रा भण्डार ।। 0000 PAAROBAR Dool Jain Education International For Privatė & Personal Use Only . www.jainelibrary.org
SR No.012038
Book TitleAmbalalji Maharaj Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaubhagyamuni
PublisherAmbalalji Maharaj Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1976
Total Pages678
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size26 MB
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