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0 सौ. लीला सुराना, आगरा
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अवसर अभिनंदन का
तुम आये जब इस धरती पर शान्त शुभ्र निर्मल नभतल था। कल-कल करते निर्झर जिनमें बहता शीतल स्वच्छ सलिल था । गिरि शिखरों पर जीवन-दायी औषधियों की विटप लताएँ। पवन स्पर्श पा पुलक-पुलक कर झूम रही बहती सरिताएँ। शुभ्र चाँदनी छिटक रही थी जैसे चाँदी बिखरी घर-घर । नन्दनवन में नाच रही थी किन्नरियाँ सुरबालाएं सुर ।। उसी रात में जन्म दिया था एक शुक्ति ने उज्ज्वल मुक्ता। एक मानवी की कुक्षि से प्रकटा तेजस् पुज दमकता ।। धर्म ज्योति का पुंज रूप था मानवता का महा मसीहा । शुचित समता करुणा-रस का वह चिर प्यासा एक पपीहा ।। प्रकटा जब आलोक धरा पर उसकी ममता जब मुस्काई । 'अम्बा'-'अम्बा' नाम श्रवण कर मुझे मानवता हर्षाई ।।
अम्बा आज बना जगदम्बा प्राणि-मात्र का हित-सुख-कामी। परम सन्त वह भक्त तपस्वी अपने इन्द्रिय-मन का स्वामी ।। वत्सलता उसकी आँखों में छलक रही है प्रतिपल मृदुतर । और दमकता तेज साथ ही ब्रह्मचर्य का दिव्य भाल पर ।। सेवा का असिधारा व्रत ले सेवा का आदर्श सिखाया। ध्यान-योग के पथ पर बढ़कर आत्म-विजय का पाठ पढ़ाया ॥ बहती अन्तर मन में तेरे समता-करुणा की रस धारा। देता है कर्तव्य बोध तू वाणी के संप्रेषण द्वारा ।। वन्दन अभिवन्दन हम करते, तेरे तप:पूत जीवन का। आज चेतना पुलक रही है, अवसर पाकर अभिनन्दन का ।।
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