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________________ [७०] प्रवृत्ति काव्य में आद्यन्त विद्यमान है। प्रथम छह सर्ग अयोध्या, काव्यनायक के शैशव एवं यौवन, वधुनों के अलंकरण, वैवाहिक रीतियों, रात्रि, चन्द्रोदय, षड् ऋतु के वर्णनों से भरे पड़े हैं। यह ज्ञातव्य है कि काव्य के यत्किचित् कथानक का मुख्य भाग यहीं समाप्त हो जाता है। शेष पांच सर्गों में से स्वप्नदर्शन (सप्तम सर्ग) तथा उनके फल कथन (नवम सर्ग) का ही मुख्य कथा से सम्बन्ध है। पाठवें तथा नवें सर्गों की विषयवस्तु को एक सर्ग में प्रासानी से समेटा जा सकता था। दसवां तथा ग्यारहवां सर्ग तो सर्वथा अनावश्यक है । यदि काव्य को नौ सगों में ही समाप्त कर दिया जाता तो शायद यह अधिक अन्वितिपूर्ण बन सकता । ऋषभदेव के स्वप्नफल बताने के पश्चात् इन्द्र द्वारा उसकी पुष्टि करना न केवल निरर्थक है, इससे देवतुल्य नायक की गरिमा भी पाहत होती है। इस प्रकार काव्यकथा का सूक्ष्म तन्तु वर्णन-स्फीति के भार से पूर्णत: दब गया है । वस्तुत: काव्य में इन प्रासंगिक-अप्रासंगिक वर्णनों की ही प्रधानता है। मूल कथा के निर्वाह की अोर कवि ने बहुत कम ध्यान दिया है । उसके लिये वर्ण्य विषय की अपेक्षा वर्णन शैली प्रमुख है ! मानव-हृदय की विविध अनुभूतियों का रसात्मक चित्रण करने में जयशेखर सिद्धहस्त है, जिसके फलस्वरूप कुमारसम्भव सरसता से आर्द्र है। शास्त्रीय परम्परा के अनुसार शृगार को इसका प्रमुख रस माना जा सकता है यद्यपि अंगी रस के रूप में इसका परिणाम नहीं हुआ है। जैन कुमारसम्भव में शृगार के कई सरस चित्र देखने को मिलते हैं। काव्य में शृगार की मधुरता का परित्याग न करना पवित्रतावादी जैन कवि की बौद्धिक ईमानदारी है। ऋषभदेव के विवाह में आते समय प्रियतम का स्पर्श पाकर किसी देवांगना की मैथनेच्छा जाग्रत हो गयी। भावोच्छवास से उनकी कंचुकी टूट गयी। वह कामवेग के कारण विह्वल हो गयी, फलतः वह प्रिय को मनाने के लिये उसकी चाटुता करने लगी : उपात्तपाणिस्त्रिदशेन वल्लभा श्रमाकुला काचिदुदंचिकंचुका । वृषास्यया चाटुशतानि तन्वती जगाम तस्यैव गतस्य विघ्नताम् ।।४।१० नवविवाहित ऋषभकुमार को देखने को उत्सुक एक पुर-युवती की अधबंधी नीवी, दौड़ने के कारण खुल गयी। उसका अधोवस्त्र नीचे खिसक पड़ा, किन्तु उसे इसका भान भी नहीं हुअा। वह प्रेम पगी नायक की झलक पाने के लिए दौड़ती गयी और जन समुदाय में मिल गयो ! कापि नार्धयमितश्लथनीवी प्रक्षरन्निवसनापि ललज्जे । नायकानननिवेशितनेत्र जन्यलोकनिकरेऽपि समेता ॥५३९ काव्य में वात्सल्य, भयानक तथा हास्य रस शृगार के पोषक बन कर पाए हैं। ऋषभ के शैशव के चित्रण में वात्सल्य रस की छटा दर्शनीय है। शिशु ऋषभ दौड़ कर पिता को चिपट जाता है। उसके अंगस्पर्श से पिता विभोर हो जाते हैं। हर्षातिरेक से उनकी आँखें बन्द हो जाती हैं और वे 'तात तात' की गुहार करने लगते हैं। दूरात् समाहृय हृदोपपोडं माद्यन्मुदा मीलितनेत्रपत्रः । अथांगजं स्नेहविमोहितात्मा यं तात तातेति जगाद नाभिः ।।४।२८ पौर युवतियों के सम्भ्रम-चित्रण के अन्तर्गत, निम्नोक्त पद्य में हास्य रस की रोचक अभिव्यक्ति हुई है। C શ્રી આર્ય કયાણગૌતમસ્મૃતિગ્રંથો Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012034
Book TitleArya Kalyan Gautam Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalaprabhsagar
PublisherKalyansagarsuri Granth Prakashan Kendra
Publication Year
Total Pages1160
LanguageHindi, Sanskrit, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size35 MB
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