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लघुभ्राता नयणसी और उनके पुत्र सोमा, कर्मसी तथा नेता, धारा, मूलजी तीनों भ्रातृपुत्रों व स्वपुत्र रामसी आदिके साथ प्रयारण किया। संघनायक वर्द्धमान जी और पद्मसी थे।२ संघ को एकत्र कर शत्रुजय की ओर प्रयाग किया। हालार, सिंह, सोरठ, कच्छ, मरुधर, मालव, आगरा और गुजरात के यात्रीगणों के साथ चले। हाथी, घोड़ा, ऊँट, रथ, सिझवालों पर सवार होकर व कई यात्री पैदल भी चलते थे। नवानगर और शत्रुजय के मार्ग में गंधों द्वारा जिनगुण-स्तवन करते हुए और भाटों द्वारा विरुदावली वखानते हए संघ शत्रुजय जा पहुंचा। सोने के फूल, मोती व रत्नादिक से गिरिराज को बधाया गया। रायण वृक्ष के नीचे राजसी साह को संघपतिका तिलक किया गया। संघपति राजसीने यहाँ वहाँ साहमीवच्छल व लाहणादि कर प्रचुर धनराशि व्यय की। सकुशल शत्रजय यात्रा कर संघसहित नवानगर पधारे, प्रागवानी के लिए बहत लोग आये और हरिणाक्षियों ने उन्हें वधाया।
___शत्रुजय महातीर्थ की यात्रा से राजसी और नयणसी के मनोरथ सफल हुए। वे प्रति संवत्सरी के पारणाके दिन स्वधर्मीवात्सल्य किया करते व सूखड़ी श्रीफल आदि बांटते । जामनरेश्वर के मान्य राजसी साहकी पुण्यकला द्वितीया के चंद्रकी तरह वृद्धिगत होने लगी । एक बार उनके मनमें विचार आया कि महाराजा संप्रति, मंत्रीश्वर विमल और वस्तुपाल तेजपाल आदि महापुरुषों ने जिनालय निर्माण कराके धर्मस्थान स्थापित किए व अपनी कीति भी चिरस्थायी की। जिनेश्वर ने श्रीमुख से इसी कार्य द्वारा महाफल की निष्पत्ति बतलाई है, अतः यह कार्य हमें भी करना चाहिए। उन्होंने अपने अनुज नयणसीके साथ एकांत में सलाह करके नेता, धारा, मूल राज, सोमा, कर्मसी आदि अपने कुटुम्बियों की अनुमति से जिनालय निर्माण कराना निश्चित कर जामनरेश्वर के सम्मुख अपना मनोरथ निवेदन किया । जामनरेश्वरने प्रमदित होकर सेठ के इस कार्य की प्रशंसा करते हुए मनपसंद भूमिपर कार्य प्रारंभ कर देनेकी आज्ञा दी। संघपतिने राजाज्ञा शिरोधार्य की। तत्काल भूमि खरीद कर वास्तुविदको बुलाकर स. १६६८, अक्षयतृतीया के दिन शुभलग्न पर जिनालय का खातमुहूर्त किया।
संघपतिने उज्ज्वल पाषाण मंगवाकर कुशल शिल्पियों द्वारा सुघटित करा जिनभवन-निर्माण करवाया। मुलनायकजी के उत्तग शिखर पर चौमुख-विहार बनवाया। मोटे मोटे स्तभों पर रंभाकी तरह नाटक करती हुई पुत्तलिकाएं बनवायीं । उत्तर, पश्चिम, और दक्षिण में शिख रबद्ध देहरे करवाये । पश्चिमकी ओर चढ़ते हुए तीन चउमुख किए। यह शिखरबद्ध बावन जिनालय गढकी तरह शोभायमान बना । पूर्व द्वारकी ओर प्रौढ़ प्रासाद हुया, उत्तरदक्षिण द्वार पर बाहरी देहरे बनवाये । सं. १६६९ अक्षयतृतीयाके दिन शुभ मुहूर्त में सारे नगर को भोजनार्थ निमंत्रण किया गया। लड्ड, जिलेबी, कंसार आदि पक्वानों द्वारा नगरजनों की भक्ति की। स्वयं जामनरेश्वर भी पधारे। वद्धा-पद्मसीका पुत्र वजपाल और श्रीपाल महाजनोंको साथ लेकर आये। भोजनानंतर सबको लौंग सुपारी, इलायची आदि से सत्कृत किया।
इस जिनालय के मूलनायक श्री शांतिनाथ, व चौमुख देहरी के सम्मुख सहस्त्रफणा पार्श्वनाथ व दूसरे - जिनेश्वरों के ३०० बिम्ब निर्मित हए । प्रतिष्ठा करवाने के हेतु प्राचार्यप्रवर श्री कल्याणसागरसरिजी को पधारने के लिए श्रावकलोग विनति करके आये। प्राचार्यश्री अंचलगच्छ के नायक और बादशाह सलेम-जहांगीर के मान्य थे। सं. १६८५ में आप नवानगर पधारे, देशनाश्रवण करने के पश्चात् राजसी साहने प्रतिष्ठाका मुहूर्त निकलवाया और वैशाख सुदि ८ का दिन निश्चत कर तैयारियां प्रारंभ कर दीं। मध्यमें माणकस्तंभ स्थापित कर १ इनका चरित्न वढं मान पद्मसी प्रबंध' एवं अंचलगच्छ पट्टावलीमें देखना चाहिए ।
2થીઆર્ય કલ્યાદાગૌતમસ્મૃતિગ્રંથ
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