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तरफ आते हुए स्टेशन से लगभग एक किलोमीटर चलने पर प्राचीन काल में पति की मृत्यु के पश्चात पत्नी के सती होने की स्मृति रूप में देहरियां भग्नावशेष के रूप में खड़ी पाई जाती हैं। प्रागे रानीवाड़ा रोड पर चण्डीनाथ का मन्दिर एवं वाव है। यह भी बहुत पुराना मन्दिर है। इसी मन्दिर के पास में एक ऊंचा टोबा है। यहां पर जगतस्वामी सूर्य का मन्दिर वि. सं. २२२ में बना था। उस मन्दिर के अवशेष इस टीबे की खुदाई करने से मिलते हैं। अभी हाल ही दो वर्ष पूर्व इस टीबे को समतल करते समय जमीन में से संगमरमर के पत्थर का बना हमा थम्भे के ऊपर का टोडा मिला है जो नगरपालिका उद्यान में विद्यमान है। इसी मन्दिर के थम्भे का एक भाग आम बाजार में गणेश चौक में पड़ा है। नगर के मध्य में वाराह श्याम का मन्दिर है जो भी बड़ा प्राचीन नजर प्राता है। नगर के उत्तर पश्चिम में विशाल जाखौडा तालाब है। तालाब के उत्तर की तरफ पाल पर दादेली वाव है। नगर के उत्तर में नरता गांव की तरफ जाने वाले गोलवी तालाब है जो किसी जमाने का गौतमसागर तालाब है। गोलाणी तालाब के पाल पर कुछ देहरियां बनी हुई हैं जो कुछ जैन मुनियों की हैं। पश्चिम की तरफ करीब दो मील की दूरी पर पहाड़ी है जिसका नाम खीमजा डुगरी है। पहाड़ी पर एक मन्दिर है जो खीमजा माता का मन्दिर है । खीमजा माता (देवी) के बारे में पूर्व में लिखा जा चुका है। पहाड़ी की तलहटी में बालासमन्ध तालाब है । इस तालाब के बारे में एक दन्तकथा प्रचलित है कि गौतम ऋषि ने किसी कारणवश इस तालाब को श्राप दिया था। उसके बाद इस तालाब में पानी नहीं रहता अन्यथा उसके पूर्व यह तालाब एक झील के समान भरा रहता था । नगर में आज सात जैन मन्दिर हैं। जिनमें से चार तो शहर में हैं। एक स्टेशन क्षेत्र में तथा दो नगर के बाहर। हाथियों की पोल में प्रभु पारसनाथजी का एवं महावीरस्वामी का ऐसे दो मन्दिर हैं। ये दोनों जिनप्रतिमाएं सर्वधातु की बनी हई हैं और विक्रम की ग्यारहवीं शताब्दी की प्रतिष्ठित हैं। शहर के मध्य में गणेश चौक में प्रभु शान्तिनाथजी का देरासर है। यह मन्दिर किसी यति द्वारा मन्त्रों से भीनमाल में उतारा गया है ऐसी दन्तकथा प्रचलित है। नगर की कुल जनसंख्या लगभग २५००० है जिनमें ८०० घर जैन हैं । जैनों के दो सम्प्रदाय हैं तपागच्छ त्रैस्तुतिक समाज एवं अंचलगच्छ । तपागच्छ के घर करीब ६५० हैं एवं अंचलगच्छ के घर १५० हैं। समाज का वातावरण सौहार्दपूर्ण है। सभी लोग आपस में रिश्तेदारी से जुड़े हए हैं। समाज की व्यवस्था पुरानी पंचायती व्यवस्था के अनुसार है ।
परिशिष्ट-१ भीनमाल के श्रावक के द्वारा श्रृतभक्ति इस लेख के अनुसंधान में यह बताते हुए आनंद हो रहा है कि भीनमाल के रत्न गच्छनायक पू. भावसागरसूरि के सदुपदेश से भीनमाल के श्री लोल श्रावक ने सं. १५६३ में श्रीकल्पसूत्र सचित्र लिखवाया था।
बहुत सौभाग्य और आनंद की बात है कि जयपुर की प्राकृत भारती संस्था ने इस कल्प सूत्र की प्राचीन चित्र और डिजाइन सहित आवृत्ति निकाली है। इसका सम्पादन महोपाध्याय विनयसागरजी ने किया है । चित्र के ब्लॉक प्राचीन चित्रों के बनाये हैं। इस प्रावत्ति का प्रकाशन करके संस्था ने जैन साहित्य का बड़ा उपकार किया है । ग्रन्थ की प्रशस्ति में भीनमाल के श्रावक एवं अंचलगच्छ का उल्लेख होने से इसे यहां दिया जा रहा है :
स्वस्ति-प्रद-श्री-विधिपक्षमुख्या-धोशा समस्तागमतत्त्वदक्षाः । श्रीभावतः सागरसूरिराजा, जयन्ति संतोषितसत्समाजाः ॥ १॥
ક) આર્ય કલ્યાણગdhસ્મૃતિગ્રંથ છે
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