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परिहरी पाय शुभ प्राचरे धरे ध्यान धर्मनू महोता ।
ए श्रीमाली धुरसखा धन-धन जशोधन ए सखा ।। भीनमाल नगरमें लींबा नामक सेठ रहता था जिनके बीजलदे नामक पत्नी थी। वि. सं. १३३१ की साल में उस लींबा सेठ के घर एक पुत्ररत्न ने जन्म लिया जिसका नाम धर्मचन्द्र रक्खा गया। लींबा अपने परिवार सहित जालोर में व्यापार करने गया था और वहां पर जाकर बस गया था। एक समय श्री देवेन्द्रसूरिजी महाराज का जालोर में पदार्पण हया । धार्मिक प्रवृत्ति के श्रावक होने के नाते लींबा का सम्पर्क प्राचार्यजी से हुआ। श्री देवेन्द्रसूरिजी की वैराग्यमय वाणी से लींबा का पुत्र धर्मचन्द प्रभावित हया और उसने चारित्र अंगीकार करने की इच्छा व्यक्त की। अपने मातापिता की आज्ञा प्राप्त कर वि. सं. १३४१ में धर्मचन्द ने प्राचार्य महाराज से दीक्षा प्राप्त की। उनका नाम श्री धर्मप्रभमुनि रक्खा गया। वि. सं. १३५९ में मूनि धर्मप्रभ को प्राचार्यपद प्राप्त हुआ एवं वि. सं. १३७१ में आपने गच्छेशपद प्राप्त किया। आचार्यश्री धर्मप्रभरि ने वि. सं. १३८९ में ५७ प्राकृत गाथाओं कालकाचार्य कथा की रचना की। इस ग्रन्थ के मंगलाचरण में निम्न श्लोक लिखा गया है
नयरम्मि धरावासे आसी सिरिवयरसिंहरायस्स ।
पुत्तो कालयकुमरो देवीसुरसुन्दरीजाओ। ग्रन्थ के अन्त में कवि ने अपने नाम का और काल का वर्णन किया है जो इस प्रकार है-इति श्रीकालकाचार्य-कथा संक्षेपतः कृता । अंकाष्टयक्षः १३८९ वर्षे ऐं श्री धर्मप्रभसूरिभिः॥ इति श्रीकालकाचार्य कथा ॥ छ ।। श्री ।। ॐ नमः ॥ : ॥ एक ही ग्रन्थ की रचना करके विश्वख्याति अजित करने वाले ग्रन्थकार बहुत ही कम मिलेंगे। प्राचार्य धर्मप्रभसरि उन विरल ग्रन्थकारों में से एक हैं। जिनकी कृति कालकाचार्यकथा विश्वप्रसिद्ध है। इस ग्रन्थ की पश्चिमी राष्ट्रों के विद्वानों ने खूब प्रशंसा की है। बलिन के प्रो. ई. लायमेनने Zeitsch Deutsch Morgenlandischen तथा W. Norman Brown ने वाशिंग्टन में The Story of Kalaka के नाम इस ग्रन्थ का प्रकाशन कराया है। प्राचीन जैन ग्रन्थकारों ने भी धर्मप्रभसूरि कृत कालकाचार्य कथा का उल्लेख अपने ग्रन्थों में किया है। जैसे विचाररत्नसंग्रह में श्री जयसोमसूरि ने एवं श्री समयसुन्दरजी ने समाचारी शतक में उक्त कालकाचार्यकथा का प्रसंग दिया है। आज भी India Office Library में इस कथा की प्रति विद्यमान है।
अांचलगच्छीय आचार्य श्री भावसागरसूरि का जन्मस्थान भी भीनमाल था। आपका जन्म वि. सं. १५१० में माघमास में हुअा था। उनके पिता का नाम श्री सांगराज एवं माता का नाम श्रीमती शृगार देवी था। इनका जन्म का नाम भावड था। आचार्य धर्ममूर्तिरि की पटावली में प्राचार्य भावसागरसूरि का जन्मस्थान नरसारणी (नरसारण) बताया गया है। श्रीभावसागरसरि की दीक्षा वि. सं. १५२० में हुई थी। इन के गुरु का नाम श्री जयकेसरसूरि था। भावसागरसरि ने अनेकों शास्त्रों का अध्ययन किया एवं वे आगमों के पारंगत विद्वान् बने । आपको श्री गोड़ी पार्श्वनाथ प्रभु का इष्ट था। श्री भावसागरसूरि के हाथ से अनेकों प्रतिष्ठायें हुई हैं।
इतिहास के अगाध सागर में और भी कितने मोती होंगे जो इस धराने उत्पन्न किये हैं। इस विषय में कोई जितनी गहराई से ढूढने का प्रयत्न करेगा उसे उतनी ही अपार रत्नराशि प्राप्त होगी। क्योंकि अनेकों ग्रन्थों में अनेकों प्रसंगों पर इस नगर का नामोल्लेख हया है। आज भी यह नगर जिले का प्रमुख व्यावसायिक स्थल है। प्राचीन अवशेषों के रूप में यहां मन्दिर, तालाब, बाव अथवा कुए आज भी विद्यमान हैं। रेलवे स्टेशन से गांव की
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માં શ્રી આર્ય કરયાણગૌતમસ્મૃતિગ્રંથ
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