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माघके शिशुपालवध काव्यमें राजनीतिका वर्णन करते हए राजनीतिको समता शब्दविद्या (व्याकरणशास्त्र) के साथ की है जिसका आशय यह है :--पद-पद पर नियमपालन करनेवाली अर्थात् सब व्यवहारवाली (अनुत्सूत्रयदन्यासा) सेवकोंकी यथायोग्य जीविका देने वाली (सद्वृत्ति) और स्थायी जीविका देनेवाली (सन्निबंधना) होने पर भी यदि राजनीति गुप्तदूतरहित (अपस्पशा) हो तो शोभा नहीं देती है ।
अनुसूत्रपदन्यासा सद्वृत्तिः सन्निबन्धना।
शब्दविद्य व नो भाति राजनीतिरपश्पशा॥ (शिशुपालवधकाव्य, सर्ग २) शिशुपालवधकाव्य की श्रेष्ठता का एक अनुपम उद्धरण निम्नलिखित है। जनश्रति अनुसार माघ के सरस्वतीका पुजारी होते हुए भी उस पर लक्ष्मी की असीम कृपा थी। एक बार राजा भोज माघका वैभव आदि देखने को श्रीमालनगर को पाया । माघ पंडितने उसकी अगुवाई की और वह अपने घर राजा को ले गया। राजा कुछ दिन माघ के घर ठहरा। उसका अतुल वैभव और अपरिमित दानशीलता देखकर भोज चकित रह गया । कुबेर समान संपत्तिवाला माघ विद्वानों को और याचकों को उनकी इच्छानुसार द्रव्यदान दे देकर वृद्धावस्थामें दरिद्र हो गया। दरिद्रता से दुःखी होकर उसने अपने देश से पलायन कर दिया एवं धारानगरी में जाकर निवास किया। वहाँसे उसने अपनी पत्नी के साथ स्वरचित काव्य शिशुपालवध द्रव्यप्राप्ति की प्राशासे राजा भोजके पास भेजा। भोजने उस स्त्री से वह काव्य लेकर उस पुस्तक को खोला तो प्रातःकाल के वर्णनका कुमुदवनमपथि से प्रारंभ होने वाला एक श्लोक दृष्टिगोचर हया । वह श्लोक निम्न प्रकार से था---
कुमुदवनमपथि श्रीमदम्भोजषण्डं त्यजति मुदमुलूक: प्रीतिमांश्चक्रवाकः । उदयमहिमरश्मिर्याति शीतांशुरस्तं
हतविधिलसितानां ह्रीविचित्रो विपाकः ।। आशय-सूर्य के उदय और चंद्रके अस्त होने पर कुमदकी (रात्रि में खिलनेवाले कमलों की) शोभा नष्ट हो जाती है और अम्भोज (दिनमें खिलने वाले कमल) सुशोभित होते हैं, उल्लू निरानंद और चक्रवाक सानंद होते हैं।
उक्त श्लोकका भाव देखते ही विद्वान राजा भोज मुग्ध हो गया। उसने कहा-काव्य का तो कहना ही क्या ? यदि इस श्लोक के लिए ही सारी पृथ्वी दे दी जाय तो कम होगी। फिर राजा ने माघ की पत्नी को एक लाख रुपया भेंट देकर विदा किया । अपने घर लौटने पर याचकों ने उसे माघ की पत्नी जान याचना की जिस पर उसने वह सारा द्रव्य उन लोगों को दे दिया। पत्नी ने खाली हाथ पतिके पास जाकर पूर्ण विवरण अपने स्वामी को कह सुनाया। माघ कविने पत्नी से केवल इतना ही कहा कि तुम मेरी मूर्तिमती कीर्ति ही हो । याचक पुनः माघके घर याचना करने गये किंतु माघके पास उस समय कुछ भी देने को नहीं था। उस परिस्थिति से दुःखित होकर उसका प्राणान्त हो गया। जैन मुनि उद्योतनसुरिकी कुवलयमाला कथा वि. सं. ७७८ में भीनमाल में पूरी हुई थी। श्री हरिभद्रसूरिकी साहित्य-प्रवृत्ति का क्षेत्र भी भीनमाल ही था। मुनि सिद्धर्षिने उपमितिभवप्रपंचा कथा वि. सं. ६६२ में भीनमाल में पूरी की। उस काल में साहित्य क्षेत्र में भीनमाल ने उन्नति सीमा प्राप्त की थी। (विशेष के लिए देखें इस लेखका परिशिष्ट ।)
- શ્રી આર્ય કથાકાગૌતમ સ્મૃતિ ગ્રંથ
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