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ग्यारस को मापने प्राचार्य श्री विवेकसागरसूरीश्वरजी महाराज से बम्बई के माहीम (गांव) में जैन यति की विधिवत दीक्षा को अंगीकार कर लिया।
पाली के श्रीमाली ब्राह्मरण श्री धीरमल का पुत्र गुलाबमल यति जीवन का ज्ञानचन्द एवं जैन जगत का पूर्णरूप से यति गौतमसागर नाम से परिचायक बन गया। यतियों के सत्संग में रहने के कारण आपने यति जीवन को स्वीकार करने में पहल की। यति जीवन अंगीकार कर पाप स्वेच्छा से धर्म प्रचार करने में तल्लीन रहने लगे। आपके ओजस्वी विचारों, स्पष्ट वक्तव्यों को सुनकर यति समुदाय के अन्य यतियों में खलबली मच गई। आपका कथन था कि अंधविश्वासों एवं दिखावे से मुक्ति नहीं मिलती। मुक्ति का मार्ग तो त्याग और तपस्या ही है । उस समय यति दीक्षा में होते हुए आपने वि. सं. १९४१ में कच्छ के देवपुर, १९४२ में मुदरा, १९४३ में गोधरा, १९४४-४५ में शेरडी स्थानों पर चातुर्मास सम्पन्न किये। इन चातुर्मासों में आपके धार्मिक प्रवचनों, जैन संगठन के सुदृढ़ विचारों से जनमानस आपकी ओर अधिक आकर्षित होने लगा। वि. सं. १९४६ में आपकी जन्म एवं कर्म भूमि पाली में स्थित नवलखा श्री पार्श्वनाथ मन्दिर के प्रांगण में आपको मुनि जीवन की विधिवत शुद्ध दीक्षा देने का आयोजन किया गया । अापने वि. सं, १९४६ में बीदड़ा, १९४७ में पारु, १९४८ में कोडाम में चातुर्मास सम्पन्न किये । वि. सं. १९४९ में आपका चातुर्मास भुज में हुआ। संगठन शक्ति के प्रणेता के रूप में आपका कार्य प्रारम् हुआ और आपने सर्वप्रथम मुनि उत्तमसागर, मुनि गुणसागर, साध्वी शिवश्री, उत्तमश्री, एवं लक्ष्मीश्री को अपना शिष्य-शिष्या बनाया।
वि. सं. १९४९ से वि. सं. २००८ तक आपने करीबन ८० से अधिक बालिकाओं एवं महिलाओं को जैन साध्वी के रूप में दीक्षित किया। आप द्वारा दीक्षित की गई साध्वियों में प्रमुख वि. सं. १९४९ में शिवश्री, उत्तमश्री, लक्ष्मीश्री, १९५१ में कनकधी, रतनश्री, निधानश्री, १९५२ में चन्दनश्री, जतनश्री, लब्धिश्री, लवण्यश्री, १९५५ में गुलाबश्री, कुशलश्री, ज्ञानश्री, १९५६ में हेतुश्री, १९५९ में सुमतीश्री, १९६० में तिलकश्री, जड़ावश्री, पद्मश्री, विनयश्री, लाभश्री, अतिश्री, जमनाश्री, कस्तूरश्री, १९६२ में विवेकश्री, १९६४ में बल्लभश्री, मगनश्री, शिवकुवरश्री, हर्षश्री, १९६७ में मणीश्री, देवश्री, पदमश्री, आनन्दश्री, जड़ावश्री, नेमश्री, १९६८ में दानश्री, १९७० में धनश्री, १९७१ में कपूरश्री, रूपश्री, मुक्तिश्री, प्रदीपश्री, केशरश्री, न्यायश्री, १९७४ में सौभाग्यश्री, अमृतश्री, मेनाश्री, ऋषिश्री, १९७६ में मंगलश्री, १९८१ में शीतलश्री, भक्तिश्री, दर्शनश्री, केवलश्री, मुक्तिश्री, हरखश्री, १९८४ में दीक्षितश्री, चतुरश्री, लक्ष्मीश्री, १९८५ में अशोकश्री, १९८७ में विद्याश्री, रमणीकधी, इन्द्रश्री, १९९१ में सोभाग्यश्री, १९९३ में जयंतश्री १९९४ में मनोहरश्री, धीरश्री, १९९९ में लब्धिश्री, रतनश्री, कीर्तिप्रभाश्री, प्रधानश्री, जगतश्री, हीरश्री, २००१ में उत्तमश्री, २००२ में धर्मश्री, २००५ में विद्युतश्री, वृद्धिश्री, २००६ में रवीभद्राश्री, निरंजनाश्री, अमरेन्द्रश्री एवं २००८ में गुणोदयश्री, हीरप्रभाश्री आदि थीं। जिन साध्वियों को आपने अपनी आज्ञा में लिया उनमें वि. सं. १९६९ में दयाश्री, १९७१ में विमलश्री, २००६ में गिरिवरश्री, सुरेन्द्रश्री एवं २००८ में पुष्पाश्री थीं। इनके अतिरिक्त कई बालिकाओं एवं महिलाओं ने दीक्षा स्वीकार की एवं इनकी शिष्याएं बनी।
साध्वी दीक्षाओं के अतिरिक्त मनि महाराज श्री गौतमसागरजी महाराज साहब ने करीबन चौदह व्यक्तियों को जैन साधु के रूप में दीक्षित किया और करीबन चार अन्य साधुओं को अपने समुदाय में लेना स्वीकार किया । आप द्वारा दीक्षित साधुओं में वि. सं. १९४९ में उत्तमसागर, गुणसागर, १९५२ में प्रमोदसागर, १९६५ में
7) હમ આર્ય કાયાહાગૌતમસ્મૃતિગ્રંથ
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