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वली यहां दी जाती है जिससे उस समय अंचलगच्छ का देशव्यापी प्रचार विदित होता है १. नौतनपुर २. ग्रावि ३. वरणथली ४. पडधरी ५. राजकोट लइया, लुधु, मोरबी, हलवद, कटारिश्र, विहंद, धमडकु, चकासर, अंजार, भद्रेस, भूहड, वारड़ी, वाराही, भुजपुर, कोठारे, सारुरु, भुजनगर, सिंध-सामही, बदीना, सारण, अमरपुर, नसरपुर, फतेबाग, सेवगरा, उतमुलतान, देराउर, सरवर, रोहली, गौरवड़, हाजीखानदेश, रांढला, भिहरुक, सलाबुर, लाहोर, नगरकोट, बिकानेर, सरसा, भटनेर, हांसी, हसार, (?) उदिपुर, खीमसर, चितुड़, अजमेरि, रणथंभर, आगरा, असराणा, बडोद्रे, तजारे, लोद्राणी, खारड़ी, समोसण, महीप्राणी, मोद्र, वरड़ी, पारकर, बिहिराण, सातलपुर, यंहुइवारु, अहिबाली, वाराही, राधनपुर, सोही, वाव, थिराद्र, सुराचन्द, राडद्रह, साचोर, जालोर, बाहडमेर, भाद्रस, कोटडे, विशाले, शिववाड़ी, ससियाणे, जसुल, महेवा, पाशगकोट, जेसलमेर, पूहकरण, जोधपुर, नागोर, मेडता, ब्रह्माबाद, सकंद्राबाद, फतेपुर, मेवात, भालपुरा, सांगानेर, नडुलाई, नाडोल, देसुरी, कुभलमेर, सादडी, भीमावाव कुभलमेर, सादड़ी राणपुर, सिखे गुदवच, पावे, सोझित, पाली, पाडवा, गोटे, राहीठ, जितारण, पदमपुर, उसीया, भिनमाल, भमराणी, खांडय, धरणसा, वाघोड़े, मोरसी, ममते, फूकती, नरता, नरसाणु, मड़ी, गाहड़, प्रांबलिपाल, सारूली, सीरोही, रामसण, मंडाहड़, पाबू, विहराणे, इडरगढ़, वीसल नगर, अणहलपुरपाटण, स्मूहंदि, लालपुर, सीधपुर, महिसाणा, गोटाणे, वीरमगाम, संखीसर, मांडल, अधार, पाटड़ी, वजाणे, लोलाडे, धोलका, धंधूका, वीरपुर, अमदावाद, तारापुर, मातर, वडोदरा, बांमरि (?) हांसूट, सुरति, वरान, जालण, कंतडी, वीजापुर, खड़की, मांडवगढ़, दीवनगर, घोघा, सखा, पालीतारणा, जुनागढ, देवका पाटण, ऊना, देलवाड़ा, मांगलूर, कूतियाणे, राणावाव, पुर, मीप्राणी, भाणवड़, राणपर, मणगुरे, खंभाधीए, वीसोतरी तथा भांढिके गोठी महाजन व झांखरिके नागड़ावंशी जो राजड़ के निकट कुटुबी हैं तथा छीकारी में भी लाहण बांटी। महिमाणे कच्छी प्रोसवालों में हालीहर, उसवरि, लसूए, गढ़कानो, तीकावाहे, कालायड़े मलूग्रा, हीणमती, भणसारणि इत्यादि कच्छ के गामनगरों में अंचलगच्छीय महाजनों के घर लाहरण वितीर्ण की।
राजड़ के भ्राता नैणसी तथा उसके पुत्र सोमा ने भी बहुत से पुण्य कार्य किये। राजड़ के पुत्र कर्मसी भी शालीभद्र की तरह सुदंर और राजमान्य थे। उन्होंने विक्रमवंश-परमारवंश की शोभा बढाई । शत्रजय पर इन्होंने शिखरबद्ध जिनालय बनवाया।
वीरवंश वाणे सालवीउड़क गोत्र के पांच सौ घर अहिलपुर में तथा जलालपुर, अहिमदपुर, पंचासर, कनडी, बीजापूर आदि स्थानों में भी रहते थे। गजसागर, भरतऋषि, तथा श्री कल्याणसागर सरि ने उपदेश देकर प्रतिबोध किया। प्रथम यशोधन शाखा हुई। नानिग पिता और नामल दे माता के पुत्र श्री कल्याणसागर ने संयमश्री से विवाह किया वे धन्य हैं। इन गुरु के उपदेश से लाहण भी बांटी गयी तथा दूसरे भी अनेक पुण्य प्राप्त हुए।
अब राजड़साह ने द्वितीय प्रतिष्ठा के लिए निमित्त गुरुश्री को बुलाया। सं. १६९६ मिति फाल्गुन शुक्ला ३ शुक्रवार को प्रतिष्ठा संपन्न हुई। उत्तर दिशि के द्वार के पास विशाल मंडप बनाया। चौमुख छत्री व देहरी तथा पगथियां बनाये। यहां से पोलि प्रवेश कर चैत्यप्रवेश होता है। दोनों और ऐरावण गजों पर इंद्र विराजमान किये । साह राजड़ ने पौत्रापिकयुक्त प्रचुर द्रव्यव्यय किया ।
કરી
શ્રી આર્ય કયાહાગૌતમ સ્મૃતિગ્રંથ ન
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