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________________ [ ७३1 हासकाल की रचना होने पर भी इसकी भाषा माथ अथवा मेघविजयगरण की भाषा की भांति विकट समासान्त अथवा कष्टसाध्य नहीं है । काव्य में बहुधा प्रसादपूर्ण तथा भावानुकूल पदावली का प्रयोग हुआ है । यद्यपि काव्य में विभिन्न कोटि की स्थितियाँ अधिक नहीं हैं किन्तु विषय एवं प्रसंग के अनुरूप पदावली प्रयुक्त करने में कवि की क्षमता सन्देह से परे है। उसका व्याकरणज्ञान असन्दिग्ध है । विद्वत्ता प्रदर्शित करने का कवि का आग्रह नहीं किन्तु लुङ तथा लिट्, विशेषकर कर्मवाच्य में, के प्रति उसका पक्षपात स्पष्ट है । १२ काव्य में कुछ ऐसे शब्द भी प्रयुक्त किए गये हैं जो नितान्त प्रप्रचलित हैं। कतिपय सामान्य शब्दों का प्रयोग असाधारण अर्थ में हुआ है ।' 3 कुमारसम्भव सुमधुर तथा भावपूर्ण सूक्तियों का विशाल कोश है । अवश्य ही इनमें से कुछ लोक में प्रचलित रही होंगी ! १४ अलंकारों की सुरुचिपूर्ण योजना काव्य शैली को समृद्ध बनाती है तथा उसके सौन्दर्य में वृद्धि करती है। हेमचन्द्र वाग्भट यादि जैनाचायों के विधान का उल्लंघन करके काव्य में चित्रबन्ध का समावेश न करना जयशेखर की भाषात्मक सुरुचि का प्रमाण है । कुमारमम्भव में अलंकार इस सहजता से आए हैं कि उनसे काव्य-सौन्दर्य स्वतः प्रस्फुटित होता जाता है तथा भाव प्रकाशन को समर्थता तथा सम्पन्नता मिलती है । जयशेखर के यमक और श्लेष में भी दुरूहता नहीं है । दसवें सर्ग में सुमंगला की सखियों के नृत्य तथा विभिन्न दार्शनिक मतों के क्लिष्ट वर्णन में श्लेष ने काव्यत्व को अवश्य दबोच लिया है। जयशेखर ने भावो बोध के लिये प्रायः सभी मुख्य अलंकारों का प्रयोग किया है। श्लेष और अर्थान्तरन्यास उसके प्रिय अलंकार हैं। छन्दों की योजना में कवि ने शास्त्रीय विधान का पालन किया है। प्रत्येक सर्ग में एक छन्द प्रयुक्त हुधा है जो सर्गान्ति में बदल जाता है । काव्य में उपजाति का प्राधान्य है । सब मिलाकर कुमारसम्भव में अठारह छन्दों का प्रयोग किया गया है । १२ अध२१७, पराभिरामनंवर जिजोवे - २.२४, विबुधफलं जगे ४.२५ सुखं सिने किभु स्वराशिना - ६.७१, जगदेतदेति-११.५ गवनावामि २.६, महोमहीनत्वमुपासिष्टषीष्ट ताम् २.६७, आतम्बि रोलम्बविलम्बः ३.४५ विभूषणं संस्तदमानि बणम्--४.३०, युवाविरामि ६.२१, हारि मा तदिदमय निद्रया १०.४२, अवेदि नेदीयसि देवराजे १८.५६. -- १३ द्रोणी नौका, अनालम् सम्यक् वजुमुखः गरुड, बुलाकी-वृक्ष, महाबलम् - वायु तृणध्यक्ष:- जांच, वृषः पुष्य, विकलुषित खण्डम्यन, उद्वेग-सुपारी, स्मरध्वज वादिव संचर- शरीर प्रान्तर-मार्ग आदीनवः-दोष, कुलम् भावास, भौती-रात्रि, विरोक:किरण, अवग्रहः विघ्न अन्तरिक निन्द्यदि दक्षिण दिशा, प्रशलतु हेमन्त पूणि अन्न तोयार्द्रा तीलिया, पिण्डोल-झूठन, निविरीस - निविड, रजनी- हरिद्रा ताविष:-स्वर्ग, स्तानवम् गतिलाघव, प्रमद्वरा - प्रमादिनी, महानादः - सिंह, माजिता रस, भोजन, मुचिः सूर्य, मंहति दान ! - Jain Education International " १४ कतिपय सूक्तियाँ --- १ यदुद्भवो यः स तदाभचेष्टितः - २६, २. तथा हि तातोनतया सुसूनुषु - २.६३, ३. स्याद् यत्र शक्तेरवकाशनाथः श्रीयेत नूरैरपि साम-१.१५ ४ न कोयना स्वेऽवसरे प्रभूयते ४.६९, ५. रागमेधपति रागिषु सर्वम् ५.१.६. कालेन विना क्व शक्ति: - ६.५, ७. शक्तौ सहना हि सन्तः - ६.२६, ५ जात्यरत्नपरीक्षायां बालाः किमधिकारिणः ७.६८, २. विविघ्नकरीष्टसिद्धे ६२, १०. अहो कलवं हृदयानुयायि कलानिधीनामपि भाग्यवभ्यम् ६.२ ११. अहो यो भाग्यवोपलभ्यम् ११, ११. શ્રી આર્ય કલ્યાણ માંતમ સ્મૃતિ ગ્રંથ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012034
Book TitleArya Kalyan Gautam Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalaprabhsagar
PublisherKalyansagarsuri Granth Prakashan Kendra
Publication Year
Total Pages1160
LanguageHindi, Sanskrit, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size35 MB
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