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मनीषी-कर्मयोगी
किसी साधनाशील-जीवन, कर्मयोग मय पुरुषार्थ और प्रकाण्ड पांडित्य को त्रिपुटी के तपोमय व्यक्तित्व का ख्याल आता है तो राजस्थान में मेरे सामने मुनि जिन विजय जी महाराज की मूत्ति खड़ी हो हो जाती है। जब मैंने सर्व प्रथम साबरमती आश्रम में लगभग आज से कोई ४५ वर्ष पूर्व उनके दर्शन किये थे तो मेरे मन पर उनके व्यक्तित्व की एक अमिट छाप बन गई थी। उसके बाद मेरे राजस्थान चले आने पर और मुनि महाराज के भी विदेश यात्रा काल तथा अधिकतर भारतीय विद्या भवन बम्बई, शान्ति निकेतन एवम् अहमदाबाद में अपने शोध कार्यों में संलग्न रहने से प्रत्यक्ष सम्पर्क नहीं बना रह सका।
इसके बाद मेरा उनका निकटवर्ती सम्पर्क उदयपुर में होने वाले राजस्थान हिन्दी साहित्य सम्मेलन के अवसर पर १९४० में हुआ। तब तक वे संभवत: चित्तौड़ के पास चन्देरिया आश्रम में आ गये थे या पाने वाले थे। बाद में तो कई बार उनके सत्संग का लाभ मिलता रहता है। पिछले वर्षों बम्बई, अजमेर, जयपुर, जोधपुर में सम्पर्क के कई अवसर मुझे मिले। पिछले वर्ष ही जनवरी मास में उनके अनुरोध पर मैं उनकी जन्मभूमि के ग्राम रूपाहेली में उनके नव निर्मित गांधी ग्राम भवन को खोलने गया, तब उनके दर्शनों का लाभ मिला था।
रूपाहेली (मेवाड़) ग्राम के एक राजपूत परिवार में जन्म लेने वाले पाठवर्षीय बालक के मन में साधना की ऊची तड़प और जिज्ञासा होना तथा इसके लिए उचित संयोग जुड़कर अहिंसा मार्ग को अपनाते हए उस पर चल पडना किसी पूर्व संस्कार का ही सुयोग माना जा सकता है। अपने साधना शील जीवन में मुनि जी ने विविध स्थानों पर रह कर अपनी जिज्ञासापूर्ति के लिए अथक परिश्रम द्वारा कई भाषाओं का अध्ययन किया। हिन्दुस्तान के कई हिस्सों में पुरात्तब की खोज और प्राचीन ग्रन्थों के अध्ययन की दृष्टि से तो वे घुमे ही, जर्मनी आदि पाश्चात्य देशों में भी इनका इसी काम के लिए जाना हया था। आज हम देख रहे कि पुरातत्व के बारे में उनका ज्ञान कितना व्यापक और ऊंचा है।
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अपने मन में निरन्तर बने रहने वाले कर्म योगी भावों और वीर पूजा के संस्कारों ने अाखिर उन्हें अपनी मातृभूमि की वीर स्थली चित्तौड़ की ओर आकर्षित किया। पुरातत्व और इतिहास के सूक्ष्म अध्ययन ने उनकी अन्त प्रेरणा को जागृत करके जीवन के उत्तरकाल में उनको प्रसिद्ध ऐतिहासिक नगरी चित्तौड़ के प्राङ्गण में ला बिठाया । यों राजस्थान और मुख्यतः मेवाड़ भूमि से उनका आकर्षण बना रहना स्वाभाविक ही था परन्तु १९४० में तो बम्बई, अहमदाबाद के अपने संग्रहालयों, पुस्तकालयों और विद्वत् गोष्ठी की स्वजन मंडली के मनमोहक साथ को छोड़कर चित्तोड़ के पास के छोटे से ग्राम चंदेरिया के जगल में आ बसे । चंदेरिया स्टेशन के समीप एक बियावान सा जंगल जहां ढाक, खेजड़े और बंबूल के पेड़ खड़े थे, झड़बेरियों से
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