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हजारीमल बांठिया
एक और बोझ मेरे ही सिर पर प्रा पड़ा है वह है यहां नवीन स्थापित भारतीय विद्या भवन की ओर से 'भारतीय विद्या' नामक त्रैमासिक का प्रगट करना ।
इसमें कोई शक नहीं कि यह (युगप्रधानाचार्य खरतर) 'गुर्वावली' एक अद्वितीय प्रसिद्ध कृति है और इसे अच्छी तरह सम्पादित कर सुन्दर रूप में प्रगट करने से अपने इतिहास की अच्छी महत्ता होगी।
बम्बई ता० २२-१२-३६
काम बहुत है और सब अकेले हाथ करना पड़ता है मेरी प्रकृति ही कुछ ऐसी है कि दूसरों का किया हुआ पसन्द ठीक नहीं पाता । सब प्रफ मुझे ही देखने चाहिए, सब प्रकार का गेटअप मुझे ही ठीक करना चाहिए । इस प्रकार सब बातें मुझे ही करनी पड़ती है। ।
बम्बई २०-७-४०
कोई २।।-३ महिने से मेरा स्वास्थ्य कुछ गड़बड़ा रहा है। खास बीमारी तो कोई नहीं है लेकिन कार्याधिक्य के कारण प्रशक्ति और मंदता बहत प्रा गई है। मस्तिष्क शून्य सा हो गया है और कार्य करने का उत्साह बहुत मंद हो गया है । इस सबब से दो एक महिने से लिखना पढ़ना प्रायः बन्द कर रखा है।
बीकानेर से श्रीमान् स्वामी नरोत्तमदासजी ने मेरे पास कुछ रिप्रिंट भेजे हैं जिनमें उन्होंने मेरी जीवनी छापी है । आप लोगों ने मुझ पर इतना अत्यधिक ममत्वभाव बतलाकर मेरे लिये जो यह 'राजस्थानी' में लेख दे दिया है-मैं उसके बारे में आप लोगों का किन शब्दों से मेरा हादिक भाव प्रकट करू, सो समझ में नहीं पाता ! मैं तो पापही में से एक हं ऐसा अपने को समझ रहा हूं इसलिये मेरे लिये कुछ लिखना अपने मुह अपना ही बखान करने जैसा है। खैर---यह तो आप सज्जनों का है-मैं उसे कैसे नागवार कर सकू ।
बम्बई ४-८-४०
मेरा कुछ स्वभाव ठेठ ही से अकेले पाप ही काम करने का आदी हो गया है सो बिना स्वयं किये किसी काम में संतोष नहीं होता। दर असल मैंने अपने शरीर से बहुत अधिक काम लिया है इससे अब इस बेचारे के कमजोर होने में कोई दोष भी नहीं है।
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