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प्राचार्य जिनविजयजी
तेमणे चलावेल जैन साहित्य संशोधक नामना त्रैमासिक पत्रनु बीजु वर्ष पूरु' थवा आवे छे । जैन समाजना कोइ पण फिरकामां ने कोटिनु पत्र अद्यापि नीकल्युनथी। श्रे पत्र जैन साहित्य प्रधान होवा छतां तेनी प्रतिष्ठा जैनेतर विद्वानोमाँ पण धणी छे । तेनू कारण तेमनी तटस्थता अने प्रैतिहासिक निष्णातता छ । जैन समाजनां लोको तेमने जाणे छे ते करतां जैनेतर विद्वानो तेमने वधारे प्रमाणमां मने मामिक रीते पिछाने छ ।
जो के जैन समाज तहन रूढ जेवो होवाथी बीजा बधा लोको जाम्या पछी ज पाछलथी जागे छ, छतां संतोषनी बात छे के मोडां मोडां पण तेनामा विद्यावृत्तिनां सुचिह्नो नजरे पडवा लाग्यां छे। अंक तरफ थी, अंग्रेजी भाषा अने पाश्चात्य वस्तुमात्रनो बहिष्कार करवा तत्पर ग्रेवो संकीर्ण वर्ग, जे मुबईमा रहे छे तेज मुबईमां बीजो विद्यारुचि अने समय सूचक जैन विद्वान वर्ग पण वसे छे। विदायगीरीना मित्रोग्रे करेला छल्ला नानकड़ा मेलावडा प्रसंगे में जे दृश्य अनुभव्यु ते जैन समाजनी क्रांतिनुसूचक हतु । जे लोको प्राचार्य जिनविजयजी ने आज सुधी बलवाखोर मानी तेमना थी दूर भागता अगर तो पासे जवामां पाफ्नो भय राखता तेवा लोको पण तेमनी विदायगिरीना मेल वडा प्रसंगे उपस्थित थइ साक्षी पूरता हता के हवे जूनु काश्मीर अने जूनी काशी में विदेशमा वसे छे । प्राचार्य हरिभद्र बौद्ध मठमां शिष्योने भरणवा मोकलेला। प्राचार्य हेमचन्द्र काश्मीरनी शारदानी उपासना करेली। उपाध्याय यशोविजयजी श्रे काशीमां गंगा तटने सेवेलु। हवे परिस्थिति प्रमाणे जो जैन साहित्ये अने जैन संस्कृतिो मानपूर्वक स्थान मेलव होय तो देशनां प्रसिद्ध स्थलो उपरांत विदेशमां पण ज्यांथी मले. त्यांथी दरेक उपाये विद्या मेलवबी अने हरिभद्र, हेमचन्द्र के यशोविजयजी नी पेठे नवीन परिस्थिति प्रमाणे नवी विद्याप्रो देशमा पारगवी। प्रा वस्तु तद्दन रूढ़ गणता जैन साधु वर्गमा परण केटलाकने समजाई गई होय प्रेम लागे छे । तेथीज अभ्यासने अंगे थता प्रा विदेशगमनने केटलाक प्रतिष्ठित जैन साधूम्रो प्रपत्र थी अने तारथी अभिनंदन मोकल्यां हतां ।
अत्यारसुधी प्रात्माना कोई अदम्य साहसथीज तेमणे अभ्यास आगल चलाव्यो छे अने प्रत्यारे पण अंग्रेजीना अधूरा अभ्यासे अने फैच के जर्मनना अभ्यास विना यूरोपनी मुसाफरी स्वीकारी छ। प्रेम प्रा साहस पण प्रत्यार सुधीनां तेमनां बधां साहसनी पेठे सफल नीवडशे ।
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