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समय सुन्दर और उनका छत्तीसी साहित्य
सामायक पोसो पडिकमणो, नित सभाय नवकार जी। राग द्वेष करतां सूझइ नहीं, न पड़े ठाम लगार जी ।।२६।। समता भाव धरी नइ करतां, सह किरिया पड़े ठाम जी । अरिहंत देव कहइ आराधक, सीझइ वंछित काम जी ।।२७।।
और राग-द्वेष करने वालों को नर्क के दुःख भी भोगने पड़ते हैं। उनकी दुर्गति का कोई पार नहीं होता।
सहधर्मी का संयोग सौभाग्य से ही मिलता है । अतः उसके साथ संतोषपूर्वक रहना चाहिये । कवि का कहना है
साहमी सू संतोष करीजइ, वयर विरोध निवार जी। सगपण ते जे साहमी केरउ, चतुर सुणो सुविचार जी ।।१।।
सहधर्मी के साथ प्रेमपूर्वक रहना, उससे अपने दोषों के लिए क्षमा मांगना, उसे हित की बात कहना. उसकी हित की बात सुनना, ये सब सहधर्मी-वात्सल्य (समता. संतोष) के अन्तर्गत प्राता है। इस सहधर्मी-वात्सल्य को जिन महापुरुषों ने निभाया और जिसके कारण उन्हें यश और मूक्ति लाभ हया, उनमें से कइयों का कवि ने अपनी कृति में स्मरण किया है।
संवत् सोल चउरासी वरसइ, सर मांहें रह्या चउमास जी। जस सोभाग थयउ जग माहे, सहु दीधी साबास जी ।।३५।।
वज्रजंघ राजा अरिहंत और साधु के अतिरिक्त किसी को नमस्कार नहीं किया करता था । अपने से बड़े राजा सिंहोदर को भी वंदना करते समय वह अपना व्रत नहीं भूलता था और हाथ की मुद्रिकागत मुनि सुव्रत स्वामी की मूर्ति को ही उस समय नमन करता था । असा सहधर्मी जब सिंहोदर के आक्रमण से प्राक्रांत हो रहा था, भगवान राम ने उसे सहायता देकर अपना सहधर्मी-बात्सल्य प्रशित किया था। असे अनेक संतोषधनियों के उदाहरण कवि ने दिये हैं जिनमें से प्रमुख ये हैं-राजा उदयन और चंडप्रद्योतन भरत और बाहुबली, सागरचन्द्र और नभसेन, कोणिक और चेडा, विजयचोर, रुक्मिणी और सत्यभामा, कपिल ब्राह्मण और राम-लक्ष्मण, मृगावती और चंदनबाला तथा आर्द्र कुमार और अभयकुमार ।
१. अरिहंत साधु बिना प्रणमे नहीं, वज्रजघा ध्रम धीर जी। सिंहोदर सुसंतोष करायो, रामचंद्र करि भीर जी ।। ८।।
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सिहोदर पासे दिवरायो, रामे प्राधउ राज जी । वज्रजंधन स्वामी जाणी नइ, सखर समास्यउ काज जी ॥१२॥
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