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सत्यनारायणस्वामी प्रेम. प्र.
उसके बिना, चाहे कितना ही मूड मुडामो, जटा बडामो, नग्न रहो, पंचाग्नि साधना करके और काशी में करवत लेकर कष्ट सहो, भस्मी लगाकर भिक्षा मांगो, मौन धारण करो चाहे कृष्ण नाम जपो, मुक्ति प्राप्त । करना सर्वथा दुर्लभ है
कोलो करावउ मुड मुडावउ, जटा धरउ को नगन रहउ । को तप्प तपउ पचागनि साधउ कासी करवत कष्ट सहउ । को भिक्षा मांगउ भस्म लगावउ मौन रहउ भावइ कृष्ण कहउ; समयसुदर कहइ मन सुद्धि पाखइ, मुगति सुख किमही न लहउ ।।१६।।
इसी प्रकार बिना धर्मकृत्यों के नर की संपूर्ण मान-प्रतिष्ठा और नारी का संपूर्ण साज-शृगार भो निस्सार है
मस्तिकि मुगट छत्र नई चामर बईसठ सिंहासन नरोकि; पारण दांण बरतावइ अपणी आज नमइ नर नारी लोक । राजरिद्धि रमणी घरि परिघल जे जोयइ ते सगला थोक । परिण समयसुदर कहइ जउ ध्रम न करइ, तउ ते पाम्यूसगलुफोक ।।२०।। सीसफूल स मथउ नकफूली, कानई कुडल हीयइ हार । भालइ तिलक भली कटि मेखल बांहै चूड़ि पुणछिया सार ।। दिव्य रूप देखती अपछर, पगि नेउर झांझर झणकार । परिण समयसुदर कहइ जउ ध्रम न करइ, तउ भार भूत सगलौ सिणगार ॥२१।।
इसलिने मांस-भक्षण, मदिरापान, विजया-सेवन, चोरी, असत्य भाषण, परदार-रति आदि समस्त नर्क के द्वारों से विमुख होकर मुमुक्षु को अविलंब धर्म-साधना में लग जाना चाहिने क्योंकि यह आयुष्य पल प्रतिपल बीता जा रहा है और बीता हुआ समय किसी भी प्रकार से हाथ नहीं पा सकता ।
संसार-सुख के विषय में भी कवि का दृष्टिकोण स्पष्ट है। उसके अनुसार संसार में आज सच्चा सुखी कोई नहीं। यहां कोई विधुर है तो कोई निस्संतान, कइयों के पास खाने को अन्न नहीं है तो कई रोगाक्रांत और शोकाविष्ट हैं। कहीं विधवाओं छाती पीटती दृष्टिगत होती हैं तो कहीं विरहिणियां छतों पर खड़ी काग उड़ाती हैं। सबको किसी न किसी प्रकार का दुःख है ही। ये सब दुख मनुष्य को अपने पूर्वकृत कर्मों के कारण भोगने होते हैं ।
- कर्म की गति भी बड़ी विचित्र है। महान व्यक्तियों को भी कर्मों के फल तो भोगने ही पड़ते हैं चाहे वे सत् हों अथवा असत् । इस कर्मबंधन के कारण ही महावीर के कानों में कीलें गाड़ी गई, राजा हरिशचंद्र को चांडाल के घर पानी भरना पड़ा । राम-लक्ष्मण को वनवास की कठोर यातनायें सहनी पड़ी तथा रावण जैसे महान पराक्रमी को स्वर्णमंडित लका और लंका ही क्यों, प्राणों तक से हाथ धोना पड़ा
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