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समयसुन्दर और उनका छतीनीसाहित्य
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सरल और मुहावरेदार राजस्थानी है ।
इस प्रकार महाकवि ने गुजरात के उस भीषण दुष्काल का अांखों देखा हाल अपनी इस छत्तीसी में वर्णन किया है जो रोमांचकारी तो है ही, प्रत्यक्षदर्शी द्वारा वरिणत होने के कारण अंतिहासिक दृष्टि से भी महत्त्वपूर्ण है। (२) प्रस्ताव सबैया छत्तीसी
इस रचना में विविध विषयों पर प्रस्तावना के रूप में (प्रास्ताविक) कहे गये ३७ उपदेशात्मक सवैये हैं जिनकी रचना १ कवि ने सं० १६६० में खंभात में की। वयं-विषय
सपूर्ण कृति में ईश्वर, मनः शुद्धि, संसार के प्रति अनासक्ति, धर्मकृत्यों की महत्ता, दुष्कृत्यों के दुष्परिणामों आदि विषयों पर प्रकाश डाला गया है।
ईश्वर-साक्षात्कार के विषय में कवि कहता है-सब कोई परमेश्वर-परमेश्वर चिल्लाते हैं किंतु उन्हें देख तो विरला ही पाता है । सचमुच वह कोई योगीश्वर ही होता है जिसे परमेश्वर के दर्शन होते हैं
समयसुदर' कहद जे जोगीसर, परमेसर दीठउ छइ तिराइ' ॥१॥ उस परमेश्वर को कोई ईश्वर कहता है तो कोई वेद-विधायक ब्रह्मा, कोई उसे कृष्ण के रूप में मानता है तो कोई अल्लाह के रूप में और कोई उसे ही सृष्टि का कर्ता, पालक और संहर्ता मानता है। किंतु कवि की मान्यता है कि परमेश्वर की महानता की थाह पाना किसी के वश की बात नहीं, वह (कवि) तो मात्र 'कर्म' को ही 'कर्ता' रूप में जानता है
'समयसुदर कहइ हुं तो मानु, करम एक करता ध्र वेद' ॥२॥ धर्म की उपयोगिता की व्याख्या कवि ने इस प्रकार की है-यज्ञ तथा पंचाग्नि प्रादि की कठिन सावना करके कोई यह मान बैठे कि हम मुक्त हो जायेंगे सो असी बात नहीं । सब धर्मों का मूल तत्त्व हैदया। जो व्यक्ति शास्त्रोक्त दया-धर्म का पालन करता है उसे ही जैन-धर्म दुराचारों के गर्त में गिरने से बचाता है । अतः मुक्तिकामी को निस्संकोच हो आस्थापूर्वक धर्मकृत्य करने चाहिये क्योंकि इनके अभाव में किया गया धर्मकृत्य निष्फल होता है
संका कंखा सांसउ म करउ कियउ धरम सहु धूडि मिलइ ।
समयसुदर कहइ प्रास्ता प्राणी धर्म कर्म कीजइ ते फलइ' ।।१०।। धर्म के संबंध में कवि ने दूसरी बात बहुत ही महत्त्वपूर्ण बतलाई है और वह यह कि किसी भी गच्छवाद के झंझट में न फंसकर मुक्तिकामी को केवल मन को निर्मल बनाने का प्रयास करना चाहिये।
१. संवत सोलनेउया वरर्षे श्री खंभाइत नयर मझारि;
कीया सवाया ख्याल विनोदई मुख मंडण श्रवणे सुखकारि । (स० कृ० कु० पृ० ५२२, छंद ३७).
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