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संस्कृत की शतक-परम्परा
(५२) माधवसिंहार्या शतक जयपुर नरेश महाराज माधवसिंह (१७५०-६८ ई०) की प्रशंसा में लिखा गया है । लेखक हैं उनके सभाकवि श्याम शुन्दर दीक्षित लद्रूजी। इसमें ब्रह्ममण्डली के अन्तर्गत केवलराम ज्योतिषराय का भी गुणगान हुआ है।
स जयति ज्योतिपरायः केवलरामाभिधः सरिः ।
श्रीमज्जयपुरनगरे पण्डितवर्यः सदाचार्यः ।।१२६।। १५ श्री अगरचन्द नाहटा ने अपने २४-८-६५ के पत्र में तीन (५३-५५) शतकों की सूचना दी हैसद्बोध शतक राजवर्णनशतक (नाहटा जी द्वारा सम्पादित सभाशृङ्गार में प्रकाशित) तथा कृष्णराम भट्टरचित 'प्लाण्डुराज शतक' । प्लाण्डुराज शतक में प्लाण्डुराज (प्याज) के गुणों का रोचक वर्णन किया गया है । यह जयपुर से प्रकाशित हो चुका है। कृष्णराम भट्ट के (५६-५७) दो अन्य शतकों-प्रार्यालङ्कार शतक तथा सार शतक का भी उल्लेख मिलता है । गोपीनाथ शास्त्री दाधीच कृत (५८) राम सौभाग्य शतक में जयपुर नरेश रामसिंह (१६ वीं शती का मध्य) का चरित वरिणत है।
___बुहारी की उपयोगिता पर अनन्तलवार ने रोचक शैली में (५६) सम्मार्जनी शतक लिखा है। यह मैसोर से प्रकाशित हुआ है।
(६०) विज्ञान शतक का कर्तृत्व अज्ञात है। विज्ञान शतक का सर्वप्रथम सम्पादन कृष्ण शास्त्री भाऊ शास्त्री गुह्रले ने १८९७ ई० में नागपुर से किया था। एक अन्य संस्करण, जिसमें उपर्युक्त से दो पद्य कम हैं तथा अन्य पद्यों के अनुक्रम में पर्याप्त वैभिन्य है, गुजराती प्रेस, बम्बई से मुद्रित हुप्रा । प्रो० कोसम्बी ने शतक त्रयादि सुभाषित-संग्रह में इसका संशोधित पाठ प्रकाशित किया है।
गुह्रले-सम्पादित संस्करण की पुष्पिका में विज्ञान शतक को भर्तृहरि की रचना माना गया है। इस कारण तथा विज्ञान शतक एवं भर्तृहरि की कृतियों में भाव तथा रचना-साम्य के आधार पर अब भी इसे भर्तृहरि-रचित मान लिया जाता है। परन्तु यह आधुनिक गढन्त प्रतीत होती है।
शतक के मंगलाचरण में गणेश की स्तुति की गयी है :
विगलदमलदानश्रेणि सौरभ्यलोभोपगत मधुपमाला व्याकुला काशदेशः । अवतु जगदशेषं शश्वदुग्रात्मजो यो विपूलपरिघदन्तोद् दण्ड शुण्डा गणेशः ।।
अन्तिम पद्य में (१०३) इसे वैराग्य शतक नाम से अभिहित किया गया है (बुधानां वैराग्यं सुघटयतु वैराग्य शतकम् ) वास्तव में अन्य वैराग्य शतकों की भांति विज्ञान शतक में भी प्रेम की छलना, जगत् की नश्वरता तथा वैराग्य की महिमा का वर्णन है।
(६१-६२) संस्कृतस्य सम्पूर्णेतिहास: (छज्जूराम शतकद्वय) संस्कृत-साहित्य के इतिहास की एक मात्र शतक संज्ञक रचना है। 'शतकद्वय' ६ परिच्छेदों में विभक्त है, जिनमें क्रमश: व्याकरण, काव्य, साहित्य, न्याय-वैशेषिक, सांख्य-योग, पूर्वोत्तर मीमांसा के ग्रन्थों का निरूपण किया गया है। यह निरूपण विवेचनात्मक
१५. वही
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