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प्रेमलता शर्मा
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देशे देशे जनानां यद् रुच्या हृदयरञ्जकम् ।
गीतं च वादनं नृत्तं तद्देशीत्यभिधीयते ।। (संगीतरत्नाकर १/१/२१-२४) (३) सामवेदात्समुद्ध त्य यद्गीतमृषिभिः पुरा।
सद्भिराचरितो मार्गस्तेन मार्गोऽभिधीयते ।। संस्कृतात्प्राकृतं तद्वत् प्राकृतादेशिका यथा ।
तद्वन् मार्गात्स्वबुध्द्यान्यैर्वाग्देशीयं समुद्ध ता ।। (भरतभाष्य ११/२)
इन तीनों उद्धरणों का सम्मिलित सारांश मार्ग और देशी-विभाजन के निम्नलिखित दो आधार प्रस्तुत करता है।
१-प्रयोजनगत-जिसके अनुसार देशी का प्रयोजन जनरंजन है और मार्ग का अभ्युदय ।*
२-स्वपरूपगत-इसके अनुसार 'मार्ग' शुद्ध और नियमबद्ध है और देशी अपेक्षाकृत अशुद्ध और नियमरहित है।
इस प्रसंग में प्रयोजनगत और स्वरूपगत भेद की कुछ सामान्य चर्चा अस्थानीय न होगी। सभी पदार्थों के दो पहलू होते हैं । एक वस्तुगत धर्म जो प्रयोक्ता अथवा ग्राहक की निष्ठा से निरपेक्ष हैं, दूसरे प्रयोजनगत धर्म जो ग्राहक अथवा प्रयोक्ता की निष्ठा के सापेक्ष है, अर्थात् उसी के अनुस्तर प्रकाशित होते हैं। किसी पदार्थ में प्रथम पहलू प्रबल होता है तो किसी में दूसरा । उदाहरण के लिये, विष का मारक धर्म वस्तुगत है। विष का सेवनकारी उसे मारक समझे अथवा संजीवक, विष का मारक धर्म दोनों अवस्थाओं में समान रूप से कार्य करेगा। (मीरा जैसे भक्तजनों को विष से भी संजीवनी प्राप्त होने के अलौकिक उदाहरण इस सामान्य नियम की परिधि के बाहर हैं)। दूसरी ओर औषधि का वस्तुगत धर्म जो भी हो, उसका प्रकाश सेवनकर्ता की निष्ठा पर काफी मात्रा में निर्भर रहता है। सामान्य भोज्य पदार्थों का वस्तुगत धर्म भी भोजन कराने वाले और करने वाले की भावना के अनुसार बहुत कुछ स्वतंत्र रूप से प्रकट होता है । होटल में प्राप्त परम पौष्टिक भोजन भी पुष्टि और तुष्टि के विधान में माता के दिये हुए रूखे-सूखे भोजन की समता नहीं कर सकता । इस प्रकार सभी स्थूल लौकिक पदार्थों में वस्तुगत धर्म प्रबल होने पर भी उसका प्रकाशन सर्वत्र एकसा नहीं होता।
जो कुछ स्थूल पदार्थों के विषय में कहा गया वह सूक्ष्म विषयों में और भी अधिक लागू होता है। ललित कलाओं को ही ले लें, उनके द्वारा सौन्दर्यबोध, भावबोध अथवा रसबोध ग्राहक के संस्कार, शिक्षा, भावनात्मक स्तर इत्यादि अनेक आश्रयगत तत्त्वों पर निर्भर रहता है जिन्हें विषयगत धर्म से निरपेक्ष माना जा सकता है। काव्य, संगीत, चित्र अथवा मूर्ति-इन कलाओं की एक ही कृति भिन्न भिन्न स्तर की अनुभूति जगाती है। उन कलाकृतियों में विषयगत स्तरभेद न हो ऐसी बात नहीं है, किन्तु ग्राहक गत स्तरभेद ही यहां प्रस्तुत है। जिस प्रकार कलाजगत् में ग्राहक का स्तरभेद वस्तुगत धर्म के प्रकाशन में
* 'अभ्युदय' से यहाँ आध्यात्मिक उन्नति का ही ग्रहण करना चाहिये, अन्यथा देशी से मार्ग का कुछ वैशिष्ट्य स्थापित न हो सकेगा। जहां 'निःश्रेयस' और 'अभ्युदय' को परस्पर भिन्न कहा जाता है वहां 'अभ्युदय' लौकिक उन्नति का वाचक माना जाता है। किन्तु यहां वह अर्थ लेना उचित नहीं जान पड़ता।
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