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निमाड़ी भाषा और उसका क्षेत्र विस्तार
१८३ पाश्मकी, चेदी और प्रांवती
महापण्डित राहुल सांकृत्यायन ने पाणिनी-कालीन बोलियों का उल्लेख करते हुये लिखा है कि 'पाणिनी-काल' में सारे उत्तरी भारत की एक बोली नहीं थी। वरन् अलग अलग जनपदों की अलग अलग भाषायें थीं। पश्चात् पाली काल में उत्तरी भारत सोलह जनपदों में बटा हुआ था जिनकी अपनी अपनी बोलियां रही होंगी जिनके नाम निम्न थे:
[१] अंगिका [२] मागधी [३] काशिका [४] कौशली [५] वजिका [६] मल्लिका [७] चेदिका [८] वात्सी [६] कौरवी [१०] पांचाली [११] मात्सी [१२] सौरसेनी [१३] पाश्मको [१४] प्रांवती [१५] गांधारी [१६] काम्बोजी।
इसमें आपने आश्मकी, प्रांवती और चेदिका का अलग अलग उल्लेख करते हुये उनके स्थान पर आज क्रमशः निमाड़ी, मालवी और बघेली-बुदेली को प्रचलित माना है ।'
__इसमें इतना तो स्पष्ट है कि निमाड़ी और मालवी परसर एक दूसरे की उपभाषायें नहीं, वरन् प्राचीन काल से विभिन्न जनपदों की समकक्ष भाषायें रही हैं। और सुंदर रामायण काल में महेश्वर को राजधानी के रूप में लेकर नर्मदा और ताप्ती की सीमाओं से दिये निमाड़ का अपना स्वतंत्र अस्तित्व रहा है।
(१) सम्मेलन पत्रिका आश्विन २०११ ।
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