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श्री उदयसिंह भटनागर की दूसरी शताब्दी में 'शिवजनपद' की स्थापना हुई जिसकी राजधानी चित्तौड़ के पास 'मध्यमिका नगरी' (अब नगरी के नाम से प्रसिद्ध) थी। इसके सिक्के पर 'मझिभिकम्ब शिवजन पदस' लिखा मिलता है।४६ यह आर्य भाषा ही है। इसमें मध्यग-अ- (मझिमिका 7 मध्यमिका में 'ध्य' का 'झ' के स्थान पर 'इ' उच्चारण करने की प्रवृत्ति आज तक वर्तमान है। इसके विपरीत मारवाड़ी में शब्द के प्रारम्भिक अ-कार का इ-कार होता है।
४. देश-भाषा की विविध प्रवृत्तियों में राजस्थानी प्रवृत्तियां :
भरत ने इसी देश भाषा की प्रान्तीय विशेषतामों का उल्लेख किया है। उसके अनुसार गंगा और सागर के मध्य की भाषा (मध्य देश तथा पूर्व में) ए-कार बहुला है । विन्ध्याचल और सागर के बीच वाले प्रदेशों की भाषा न-कार बहुला है । सुराष्ट्र, अवन्ति और बेत्रवती (बेतवा) के उत्तर के देशों की भाषा में च-कार की प्रधानता है। चर्मण्वती (चम्बल) और उसके पार पाबू तक के प्रान्तों में ट-कार की बहुलता है। और हिमालय, सिन्धू और सौवीर के बीच अर्थात शूरसेन, हिमालय का पहाड़ी भाग तथा उत्तर राजस्थान से लेकर सिन्धु तक के देशों में उ-कार की बहुलता है। उक्त कथन में राजस्थान में तीन भाषा स्पष्ट रूप में आ गई हैं।
(१) सौराष्ट्र से अवन्ति तक च-कार की विशेषता
(२) चम्बल से पाबू के बीच ट-कार की विशेषता, और
(३) उत्तर राजस्थान में उ-कार की बहुलता
स्पष्ट है कि दक्षिण राजस्थान में भीली-किरात-द्रविड़ प्रभाव के कारण च-वर्गीय तथा टवर्गीय ध्वनियों में उच्चारण आर्य ध्वनियों से भिन्न है। इसका उल्लेख ऊपर किया जा चुका है। हम जो यह बतला चुके हैं कि उकारान्त प्रवृत्ति भीली, द्रविड़ तथा 'पामीरोक्ति' की प्रधान विशेषता थी। मथुरा से लेकर राजस्थान और गुजरात तक वही उकारान्त प्राज ओकारान्त हो गया है और इसका उकारान्त स्वरूप अपभ्रश से प्रभावित तेलगू में प्रबल रूप में वर्तमान है।
अपभ्रश में उकारान्त बहुलता के साथ व्याकरण के नपूसक के भेद को हटा देने की प्रवृत्ति प्रारम्भ हो गई थी। इसी कारण उसमें कहीं नपुंसक का प्रयोग होता था और कहीं नहीं । इस प्रवृत्ति से दो बातें स्पष्ट होती हैं । इसमें एक वर्ग ऐसा था जो नपुंसक के भेद को स्वीकार करता था। यह वर्ग विशेष रूप में गुजरात-सौराष्ट्र वर्ग था, जिसका कुछ प्रभाव मारवाड़ पर भी था । दूसरा शेष राजस्थान का था जो नपुसक के भेद को हटा रहा था, इसलिये अनुस्वार का प्रयोग नहीं करता था। आगे चलकर जब पुरानी पश्चिमी राजस्थानी से गुजराती अलग हुई तो गुजराती में नपुंसक सुरक्षित रह गया और राजस्थानी से लुप्त हो गया।
४५-४६-देखो-नागरी प्रचारिणी पत्रिका भाग ३, पृ. ३३४ पर प्रोझा० का लेख ।
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