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जवाहिरलाल जैन
बड़ौदा-निवास के समय में ही मुनिजी का वहां नवस्थापित गायकवाड़ प्रोरिएन्टल सिरीज के मुख्य कार्यकर्ता श्री चिमनलाल डाह्याभाई दलाल से परिचय हुआ जो समानशील और समव्यसन के कारण प्रगाढ़ मैत्री में बदल गया तया परिणामस्वरूप कुमारपाल प्रतिबोध नामक वृहत्काय प्राकृत ग्रन्थ मुनिजी द्वारा सपादित होकर प्रकाशित हुप्रा ।
इसी समय पूना में भाण्डारकर प्राच्य विद्या संशोधन मदिर की स्थापना हुई । इस संस्थान के संस्थापकों का एक शिष्ट मंडल बम्बई के जैन समाज से मिलने पाया । मुनिजी इस समय बम्बई में ही चातुर्मास कर रहे थे। मंडल का परिचय इन से भी हुआ और उसने मुनिजी को पूना प्राने का निमन्त्रण दिया। चातुर्मास के पश्चात् मुनिजी पदयात्रा करते हुए पूना पहुंचे। इस संस्थान को देखकर वे बड़े प्रसन्न हुए और स्वयं भी उसके विकास में यथाशक्ति योग देने का निश्चय करके वहीं रह गए । यहीं उन्होंने जैन साहित्य संशोधक समिति की स्थापना की और जैन साहित्य संशोधक नामक त्रैमासिक खोज पत्रिका और ग्रन्थमाला का प्रकाशन प्रारम्भ कर दिया ।
मुनिजी का पूना-निव स उनके जीवन में नया मोड़ देने वाला साबित हया। १९१६-१७ से वे पूना में रहने लगे थे। उनके निवास का स्थान लोकमान्य तिलक के निवास के निकट ही था। इतिहास, प्राचीन संस्कृति तथा शोध में लोकमान्य की रूचि और ज्ञान भी अगाध था, अत: दोनों में शीघ्र ही परिचय हो गया और मूनिजी लोकमान्य की देश की स्वाधीनता के लिए तड़प तथा उनके राजनैतिक विचारों से अत्यन्त प्रभावित हो गए। कुछ क्रांतिकारी विचारों के युवकों के संसर्ग में भी वे आये । राजस्थान के प्रसिद्ध क्रांतिकारी श्री अर्जुनलाल सेठी से भी उनका वहीं परिचय तथा मैत्री हुई। उनकी विचार धारा भी उसी ओर बहने लगी।
मुनिजी के हृदय में फिर अंतर्द्वन्द्व खड़ा हो गया। जैन श्वेतांबर मूर्तिपूजक साधुचर्या भी उन्हें खलने लगी। देश की पराधीनता की परिस्थिति में निष्क्रिय से तथा बाह्य त्यागी जीवन से उन्हें अरुचि हो गई और वे पुनः कोई नया मार्ग खोजने लगे । १९१६ म वे पूना में ही सर्वेट्स ऑफ इण्डिया सोसाइटी के भवन में महात्मा गांधी से मिल चुके थे और उनके साथ विचार विनिमय करके उनके आश्रम में प्रविष्ट होने का विचार भी बना था, पर अंत में जब असहयोग आंदोलन उन्होंने प्रारम्भ किया और अंग्रेजी शिक्षा के बहिष्कार के साथ तथा उसके स्थान पर राष्ट्रीय शिक्षा के विचार को मूर्त रूप देने के लिए अहमदाबाद में राष्ट्रीय विद्या पीठ स्थापित करने की योजना बनने लगी तब गांधीजी ने मुनिजी को याद किया ।
इसके बाद की घटना का जिक्र मुनिजी के शब्दों में ही जानना अधिक रुचिकर होगा :
__ "महात्मा जी का बंबई प्राने का और उनसे मुझे मिलने का जब संदेश मिला तो मैं अकस्मात् बड़ी असमंजसता की स्थिति में पड़ गया । यदि मुझे महात्माजी से मिलना है तो कल ही यहां से रेलगाड़ी में बैठकर मुझे बबई पहँचना चाहिए । गुजरात राष्ट्रीय विद्यापीठ की स्थापना व योजना के बारे में इससे पहले मेरे मित्रों द्वारा मुझे काफी जानकारी मिल गई थी और बहुत ही निकट समय में उसकी स्थापना होने वाली है और उसमें मुझे निश्चित रूप से योग देना है यह भी मेरे कई मित्रों ने सूचित कर दिया था। इन सब बातों
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