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प्राचाय श्री जिनविजयमुनि
उस रात के व्यतीत होने पर सवेरे ही उस दयालु किसान को अपना हार्दिक धन्यवाद देता हुआ वहाँ से आगे के लिए चल पड़ा।"
किसनसिंह जैसे तैसे घूमता-फिरता अहमदाबाद पहुंचा। वहां १०-१५ दिन भटकते रहने के बावजूद कोई मार्ग नहीं मिला । एक दिन रात को जब यह एक दुकान के सामने सो रहा था तो चोर होने के संदेह में पुलिस पकड़ कर ले गई। पूछताछ करने पर उसे छोड़ दिया गया। कोई सहारा न देखकर किसनसिंह एक होटल में चार आने रोज की मजदूरी पर प्याले-रकाबी धोने का काम करने लगा, ताकि पेट की चिंता से मुक्त होकर लिखने-पढ़ने की ओर कुछ ध्यान दे सके। खाली समय में किसनसिह जैन उपासरों का चक्कर लगाता और तलाश करता कि कहां पढ़ाई की अच्छी व्यवस्था है। वहां से पता चला कि पालनपुर में कोई अच्छा केन्द्र है । किसनसिंह अहमदाबाद छोड़कर पालनपुर चला गया, पर वहां भी निराशा ही हाथ लगी। किसी साधु ने वहां बतलाया कि पाली में ऐसा उपासरा है जहां पंडितगरण पढ़ाते हैं। किसनसिंह वहां जा पहुंचा और मुनि सुन्दर विजय के पास रहने लगा। मुनि स्वयं तो खास पढ़े-लिखे नहीं थे, पर उन्होंने किसन सिंह की पढ़ाई की समुचित व्यवस्था करवा दी। यहां मार्गशीर्ष शुक्ला ७, १९६६ के दिन पाली के पास भाखरी पर बने जैन मंदिर में उन्होंने इस बार जैन श्वेतांबर मूर्तिपूजक सम्प्रदाय की साधु-दीक्षा स्वीकार की, मुनि वेष धारण किया और इस बार सम्प्रदाय के व्यवहार के अनुसार उनका नाम जिनविजय रखा गया और उस दिन से वे इस नाम से संबोधित होने लगे।
दीक्षा के कुछ समय बाद मुनिजी ब्यावर गये जहां उनकी भेंट आचार्य विजयबल्लम सूरि से हुई जो अपने शिष्यों के साथ गुजरात जा रहे थे। उनके साथ २-३ पंडित भी थे। अपनी अदम्य ज्ञान-पिपासा के कारण मुनिजी इनके साथ हो लिये। फिर पालनपुर होकर बड़ौदा आये। इस समय तक उनका अध्ययन काफी विस्तृत हो गया था और इतिहास तथा शोध संबंधी रुचि भी परिपक्व होती जा रही थी। "टोड राजस्थान" के पढ़ने से राजस्थान तथा मेवाड़ के अतीत की ओर भी उनका आकर्षण बढ़ा। पाटन में हस्तलिखित ग्रन्थों, तथा ताड़पत्र पर लिखे प्राचीन ग्रन्थों का ऐतिहासिक दृष्टि से अध्ययन किया। मेवाड़ के प्रसिद्ध जैन तीर्थ श्रीऋषभदेव केसरयाजी की यात्रा भी इन्होंने की। इसके बाद मेहसाना में चातुर्मास किया । इन्हीं दिनों मुनिजी का परिचय प्राचार्य श्री कांतिविजय, उनके शिष्य श्री चतुरविजय तथा प्रशिष्य श्री पुण्य विजय से हुमा । ये सब इनकी प्रेरणा तथा सक्रिय सहयोग के स्रोत रहे हैं। मुनिजी ने प्राचार्यवर के स्मारक रूप में श्री कांतिविजय जैन इतिहास माला का प्रारम्भ किया। इसमें अनेक महत्वपूर्ण ग्रंथों का प्रकाशन हुप्रा और विद्वानों के द्वारा इनका अच्छा अभिनन्दन हुआ।
मुनिजी १९०८ से ही 'सरस्वती' पढ़ने लगे थे। गुजराती में लेख भी दीक्षा के पश्चात् लिखने लगे थे जो साप्ताहिक 'गुजराती' 'जैन हितेषी' तथा दैनिक 'मुबंई समाचार' में छपते थे। मुनिजी ने प्रसिद्ध जैन वैयाकरण शाकटायन के पाटन भंडार में प्राप्त अन्य ग्रंथों के संबंध में एक लेख सरस्वती इस पर प्राचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी ने पाटन के जैन भण्डारों के संबंध में विस्तृत जानकारी मांगी, जो लेख के रूप में सरस्वती में छपी । इन लेखों तथा अपने संपादित ग्रंथों के कारण मुनिजी न केबल गुजराती साहित्याकाश में बल्कि हिन्दी जगत में भी चमकने लगे ।
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