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जैन आगम प्रोपपातिक सूत्र का सांस्कृतिक अध्ययन
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साहित्य, समाज का प्रतिबिम्ब है । जिस काल में जिस ग्रन्थ को रचना होती है, उस ग्रन्थ में उस समय के जीवन की झलक प्रा ही जाती है । प्राचीन जैन आगम, भगवान् महावीर की वाणी का संकलन है । भगवान् महावीर ने अपना उपदेश अपने विहार क्षेत्र के अधिकाधिक लोगों की जनभाषा में दिया था । इसीलिये उसका नाम अर्धमागधी रखा गया । इस प्राचीन साहित्य में भगवान् महावीर के समय के देश प्रदेश, ग्राम, नगर, राजा, रानी, मन्त्री, सेठ, विद्वानों आदि के अनेक ऐतिहासिक प्रसंग एवं उस समय के लोक जीवन के वास्तविक चित्र प्राप्त होते हैं । सांस्कृतिक दृष्टि से इन ग्रन्थों का अध्ययन करने से भारतवर्ष के प्राचीन इतिहास और संस्कृति सम्बन्धी अनेकों महत्वपूर्ण तथ्य प्रकाश में आवेंगे ।
बौद्ध साहित्य की अपेक्षा जैन साहित्य के अध्ययन का महत्व इसलिये और भी बढ़ जाता है क्योंकि जैन साहित्य की परम्परा २५०० वर्षों से अविछिन्न रूप से चली आ रही है । प्रागमों पर समय समय पर नियुक्ति, भाष्य चूरिण, एवं विस्तृत टीकाएँ रची जाती रही हैं और उनमें उन टीकाकारों ने अपने अनुभव एवं मौखिक श्रुत परम्परा और अन्य साहित्य से प्राप्त हुए ज्ञान का बहुत सुन्दर रूप से उपयोग किया है। नियुक्ति, माष्य एवं चूरिण में जो श्रागम काल के बाद की है, अनेक सांस्कृतिक प्रसंग उल्लिखित हैं । भगवान् महावीर के कुछ शताब्दी बाद जैन मुनियों के जीवन में कितने विषम प्रसंग उपस्थित हुए और उस समय उन्होंने अपने प्रचार एवं जैन धर्म को किस तरह सुरक्षित रखा, इसका बहुत ही विशद वर्णन छेद सूत्र एवं उनकी भाष्य चूर्णि में मिलता है । आचार्य कालक और शकों के भारत श्रागमन का प्रसंग निशीथ चूरिण आदि में लिखा मिलता हैं जो भारत के ऐतिहासिक अन्धकार को मिटाने के लिये उज्जवल प्रकाश है ।
आगमों की टीकाओं के अतिरिक्त मौलिक ग्रन्थ भी बराबर रचे जाते रहे हैं । उन सबके आधार से भारत के इतिहास और संस्कृति के महत्त्वपूर्ण तथ्य निकाले जा सकते हैं। जबकि बौद्ध साहित्य की परम्परा भारत में कुछ शताब्दी चलकर ही लुप्त हो गई। उनके मध्यकाल के जो थोड़े से ग्रन्थ मिलते हैं, वे बौद्ध न्याय के होने के कारण उनसे दार्शनिक उथल-पुथल का ही थोड़ा पता चल सकता है पर सांस्कृतिक सामग्री अधिक नहीं मिल सकती । दसवीं शताब्दी के बाद भारत में रचा हुआ बौद्ध साहित्य प्रायः नही मिलता क्योंकि बौद्ध धर्म का प्रचार तब भारत के बाहर होने लग गया था जबकि जैन धर्म भारतवर्ष में ही सीमित रहा; इसलिये मध्यकालीन ऐतिहासिक एवं सांस्कृतिक सामग्री के रूप में जैन साहित्य अधिक मूल्यवान है ।
जैन आगम साहित्य प्राकृत भाषा में है और उसी भाषा से आगे चलकर अपभ्रंश का विकास हुआ । अपभ्रंश में भी सबसे अधिक साहित्य निर्माण जैन विद्वानों ने ही किया है। अपभ्रंश भाषा से ही उत्तर भारत की समस्त प्रान्तीय बोलियां निकली हैं। इसलिये भाषा-विज्ञान की दृष्टि से भी जैन साहित्य का महत्व सर्वाधिक है । बहुत से शब्दों के मूल का पता लगाने में जैन साहित्य ही सबसे अधिक सहायक हो सकता है । जैन आगमों आदि में प्रयुक्त अनेकों शब्द प्राज भी प्रान्तीय बोलियों में ज्यों के त्यों या सामान्य परिवर्तन के साथ प्राप्त हैं । फिर समय समय पर उन शब्दों व व्याकरण के रूप किस तरह परिवर्तित होते गये । इसकी भी पूरी जानकारी जैन साहित्य से भलीभाँति मिल सकती है । बहुत से देशी शब्द जिनकी उत्पत्ति संस्कृत कोष एवं व्याकरण में ठीक नहीं मिल सकती, उनका प्राचीन रूप व परिवर्तित रूप भी जैन साहित्य के आधार से जाना जा सकता है । प्रान्तीय भाषा में केवल उत्तर भारत की ही नहीं पर दक्षिण
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