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श्री अगरचन्द नाहटा
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उनके प्रधान शिष्य-- गणधरों ने द्वादशाङ्गी के रूप में ग्रथित कर लिया, जिसे 'गणिपिटक' कहा जाता है । लंबे दुर्भिक्ष तथा मनुष्यों की हसमान स्मृति प्रादि के कारण चौदह पूर्व और बारहवें अंग दृष्टिवाद सूत्र का एवं ज्ञान भगवान् महावीर से दौ सौ वर्ष के भीतर ही भद्रबाहु स्थलिभद्र से विछिन्न हो गया और उसके कुछ काल बाद तक दस ' पूर्वो का ज्ञान रहा था, वह भी ब्रज स्वामी के बाद नहीं रहा । इसलिए वीर निर्वाण के ६८० वर्ष बाद जब जैन श्रागम देवद्विगरि क्षमाश्रमण ने वल्लभी नगरी में लिपिबद्ध किये, तब केवल ग्यारह अंग सूत्र और कुछ अन्य ग्रन्थ ही बच पाये थे, जिनके नाम नंदी एवं पक्षीसूत्र में पाये जाते हैं ।
एकादश अग सूत्रों में भी अब मूल रूप में उनके जितने परिमाण का उल्लेख चौथे अंग सूत्र - समवायांग में मिलता है, प्राप्त नहीं है । समवायांग में बारहवें दृष्टिवाद - अंग सूत्र का विस्तृत विवरण है, चौदह पूर्व उसी के अन्तर्गत माने गये हैं । दृष्टिवाद बहुत लम्बे अर्से से नहीं मिलता । पर दसवां अंग प्रश्नव्याकरण न मालूम कब लुप्त हो गया । समवायांग और नंदीसूत्र में 'प्रश्नव्याकरण' के विषयों का विवरण दिया है, वह वर्तमान में प्राप्त 'प्रश्नव्याकरण' में नहीं मिलता है । इससे मालूम होता है कि आगम लेखन के समय तक 'प्रश्न व्याकरण' मूलरूप में प्राप्त होगा पर उसके बाद उस सूत्र में मन्त्र विद्या प्रश्न विद्या का विवरण होने से अनधिकारियों के द्वारा उसका दुरुपयोग न हो, यह समझ कर किसी बहुश्रुत प्राचार्य ने उसके स्थान पर पांच श्राश्रव और पांच संवर द्वार वाले सूत्र को प्रचारित कर दिया । ग्यारह अंग सूत्रों का भी जो परिमाण समवायांग आदि में लिखा है उससे वर्तमान में प्राप्त उनी नाम वाले श्रगसूत्र बहुत ही कम परिमाण वाले मिलते हैं । जिस प्रकार आचारंग के पदों की संख्या १८००० हजार, सूत्रकृतांग की ३६०००, स्थानांग की ७२०००, समवायांग की १४०,०००, और व्याख्याप्रज्ञप्ति ( भगवती ) को ८४००० पदों की संख्या बतलाई गई है उनमें से प्राचारांग २५२५, सूत्र कृतांग २१००, स्थानांग ३६००, समवायांग १६६७, भगवती १५७५२ श्लोक परिमित ही प्राप्त हैं। यद्यपि समवायांग में उल्लिखित पद के परिमाण के संबंध में कुछ मतभेद हैं फिर भी यह तो निश्चित है कि उपलब्ध आगम, मूलरूप से बहुत कम परिमाण वाले रह गये हैं । छठे 'ज्ञाताधर्म कथा' में साढ़े तीन करोड़ कथात्रों के होने का उल्लेख 'समव यांग' में है, उनमें से अब केवल प्रथम श्रुतस्कंध की १६ कथाएं ही बच पाई हैं । द्वितीय स्कंध जो बहुत आख्यायिका और उपपाख्यायिकाओं का भंडार था, वह भी अब लुप्त हो चुका है। दिगम्बर सम्प्रदाय में आगमों के नाम और विषय तो वही मिलते हैं पर उनकी पद संख्या या परिमाण और भी अधिक बताया गया है। खैर, जो चीज लुप्त या नष्ट हो गई. उसके सम्बन्ध में तो दुःख ही प्रकट किया जा सकता है अन्य कोई चारा नहीं है । पर सबसे ज्यादा दुःख की बात है कि जो कुछ प्राचीन जैन प्राकृत वाङमय उपलब्ध है उसका भी पठनपाठन जिस गहराई से किया जाना अपेक्षित है, नहीं हो पा रहा है इसके प्रधान दो कारण हैं--जैन मुनियों व श्रावकों के लिये वे ग्रन्थ श्रद्धा के केन्द्र हैं अतः परम्परागत जिस तरह उनका वाचन एवं श्रवण होता आया है, करते रह कर ही वे अपने कर्त्तव्य की इतिश्री समझ लेते हैं और जैनेतर विद्वानों का ध्यान इस ओर इसलिए नहीं जाता कि उनकी यह धारणा बन गई है कि इन ग्रंथों में जैन धर्म का ही निरुपण है, इसलिए उनका ऐतिहासिक, साहित्यिक एवं सांस्कृतिक महत्त्व विशेष नहीं है । पर वास्तव में यह धारणा उन ग्रंथों के गम्भीर अध्ययन के बिना ही बना ली गई है । अन्यथा बौद्ध साहित्य की भांति इन श्रागमदि का भी परिशीलन होना चाहिये था ।
१. इन पूर्व संज्ञक श्रुतज्ञान पर आधारित कुछ ग्रन्थ कषाय पाहुड़ादि १ मिलते हैं ।
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