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डॉ० हरीन्द्र भूषण जैन धनपाल ने बचपन से ही अभ्यास करके सम्पूर्ण कलाओं के साथ वेद, वेदाङ्ग, स्मृति, पुराण आदि का प्रगाढ़ अध्ययन किया । इनका विवाह 'धनश्री' नामक अतिकुलीन कन्या के साथ हुआ।
___ कहा जाता है कि धनपाल के अनुज शोभन ने महेन्द्र सूरि के निकट जैन-दीक्षा स्वीकार की थी। धनपाल यद्यपि कट्टर ब्राह्मण थे किन्तु अपने अनुज से प्रभावित होकर अन्त में उन्होंने भी जैन धर्म स्वीकार किया ।
धनपाल, मालव देश के अधिपति धाराधीश मुञ्जराज ( वि० सं०१०३१-१०७८ ) तथा उनके भ्रातृ पुत्र भोजराज के सभापण्डित थे। भोजराज का राज्याधिरोहण काल वि० सं० १०७८ है। अतः धनपाल का समय निश्चित रूप से विक्रम की ११ वीं शताब्दी समझना चाहिए ।२
रचनायें-धनपाल ने संस्कृत और प्राकृत में अनेक रचनायें की हैं। उनकी प्राकृत को रचनाओं में "पाइयलच्छी नाममाला" "ऋषभ पत्र चाशिका3' और 'वीरथुई' प्रसिद्ध हैं।
ऋषभ पञ्चाशिका और वीरथुई में क्रमशः भगवान् ऋषभदेव और महावीर की अनेक पद्यों में स्तुति की गई है।
संस्कृत में जो स्थान अमरकोश का है, प्राकृत में वही स्थान पाइयलच्छी-नाम माला का है । धनपाल ने अपनी छोटी बहन सुन्दरी के लिए विक्रम सं० १०२६ (ई० सन् ६७२) में धारा नगरी में इस कोश की रचना की थी। प्राकृत का यह एक मात्र कोश है। व्यूलर के अनुसार इसमें देशी शब्द, कुल एक चौथाई हैं । बाकी तत्सम और तद्भव हैं। इसमें २७६ गाथायें आर्या छन्द में हैं जिनमें पर्यायवाची शब्द दिए गए हैं।
इनके अतिरिक्त, सत्यपुरीय-महावीर-उत्साह, श्रावक विधि प्रकरण, प्राकृत नाम माला, शोभन स्तुति वृत्ति प्रादि ग्रन्थ भी उन्होंने लिखे हैं । शोभन स्तुति-वृत्ति , अपने अनुज शोभन सूरि द्वारा लिखित "शोभन स्तुति" पर धनपाल का टीका ग्रन्थ है।
तिलकमञ्जरी-धनपाल ने अनेक ग्रन्थों की रचना की किन्तु जिस ग्रन्थ की रचना से उन्हें सबसे अधिक यश मिला उसका नाम है-'तिलकमञ्जरी' यह संस्कृत भाषा का श्रेष्ठ गद्य काव्य है। इसमें विद्याधरी तिलकमञ्जरी और समरकेतु की प्रणय-गाथा चित्रित की गई है। इस ग्रन्थ की रचना का
१-प्रबन्ध चिन्तामणि (धनपाल प्रबन्ध) तथा प्रभावक चरित (महेन्द्रसूरि प्रबन्ध) २-तिलक. पराग० 'प्रास्ताविक' पृ० २६ । ३-जर्मन प्राच्य विद्या समिति की पत्रिका के ३३ वें खण्ड में प्रकाशित । ई० सन् १८९० में काव्य माला के
सातवें भाग में, बम्बई से प्रकाशित । भावचूणि ऋषभ पञ्चाशिका के साथ वीरथुई, 'देवचन्द्र लाल भाई
ग्रन्थ माला' बम्बई की ओर से सन् १९३३ में प्रकाशित. ४-गेनोर्ग व्यूलर द्वारा संपादित होकर गोएरिगंन (जर्मनी) से सन् १८७६ में प्रकाशित । गुलाब भाई
लालूभाई द्वारा संवत् १९७३ में भावनगर से प्रकाशित । पं० बेचरदास जी द्वारा संशोधित होकर,
बम्बई से प्रकाशित । ५--तिलक० पराग० पृ० २८.
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